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________________ दशवैकालिकसूत्र [४०८] भिक्षु कानों से बहुत कुछ सुनता है तथा आंखों से बहुत-से रूप (या दृश्य) देखता है किन्तु सब देखे हुए और सुने हुए को कह देना उचित नहीं ॥ २० ॥ [४०९] यदि सुनी हुई या देखी हुई (घटना) औपघातिक (उपघात से उत्पन्न हुई या उपघात उत्पन्न करने वाली) हो तो (साधु को किसी के समक्ष ) नहीं कहनी चाहिए तथा किसी भी उपाय से गृहस्थोचित (कर्म का) आचरण नहीं करना चाहिए ॥ २१ ॥ २८४ [४१०] (किसी के) पूछने पर अथवा बिना पूछे भी यह (सब गुणों से युक्त या सुसंस्कृत) सरस (भोजन) है और यह नीरस है, यह (ग्राम या मनुष्य आदि) अच्छा है और यह बुरा (पापी) है, अथवा (आज अमुक व्यक्ति से सरस या नीरस आहार) मिला य न मिला, यह भी न कहे ॥ २२ ॥ विवेचन साधुवर्ग के लिए भाषाविवेक एवं कर्मविवेक रखना अत्यावश्यक — प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (४०८ से ४१० तक) में चार बातों के विवेक की प्रेरणा दी गई है— (१) देखी या सुनी सभी बातें कहने योग्य नहीं, (२) आघात पहुंचाने वाली देखी या सुनी बात न कहे, (३) गृहस्थोचित कर्म न करे, (४) आहार आदि सरस मिला हो या नीरस, किसी के पूछने या न पूछने पर भी न कहे ।१४ देखी-सुनी सभी बातें प्रकट करने में दोष – साधु या साध्वी जब भिक्षा आदि के लिए गृहस्थ के घरों में जाते हैं तो वहां अनेक अच्छी-बुरी, नैतिक-अनैतिक, निन्द्य-अनिन्द्य बातें सुनते-देखते हैं । किन्तु स्वपरहित की दृष्टि से वे सभी बातें लोगों के समक्ष कहने योग्य नहीं होतीं । यथा— 'आज अमुक के घर में लड़ाई हो रही है।' 'आज मैंने अमुक को दुराचार करते देखा।' अथवा अमुक स्त्री बहुत रूपवती है या अत्यन्त कुरूपा है। ऐसी बातें प्रकट करने से अपना कोई हित नहीं होता, न दूसरों का कोई हित होता है। बल्कि जिस व्यक्ति के विषय में ऐसा कहा जाता है, वह साधु का विरोधी या द्वेषी बन सकता है, उसे हानि पहुंचा सकता है। चूर्णिकार ने इस गाथा के समर्थन में एक उदाहरण प्रस्तुत किया है— एक गृहस्थ परस्त्रीगमन कर रहा था। किसी साधु ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया। वह लज्जित होकर सोचने लगा-यदि साधु ने यह बात प्रकट कर दी तो समाज में मेरी बेइज्जती हो जाएगी, अत: इस साधु को मार डालना चाहिए। उसने शीघ्र दौड़कर साधु का मार्ग रोका और पूछा - " आज आपने रास्ते में क्या-क्या देखा ?" साधु ने इसी गाथा से मिलता-जुलता आशय प्रकट किया- " भाई ! साधु बहुत-सी बातें देखता - सुनता है, किन्तु देखी-सुनी सभी बातें प्रकट करने की नहीं होतीं।" यह सुनते ही उसने साधु को मारने का विचार छोड़ दिया । अगली गाथा के पूर्वार्द्ध में यही बात कही है कि देखी या सुनी हुई औपघातिक बात भी नहीं कहनी चाहिए। यथा— 'मैंने सुना है कि तू चोर है, ' अथवा 'मैंने उसे लोगों का धन चुराते देखा है' यह क्रमशः सुना देखा औपघातिक वचन है। हां, जिसके प्रकट करने से स्वपर का हित होता हो, उसे साधु प्रकट कर सकता है ।१५ " गिहिजोगं न समायरे० " व्याख्या - गिहिजोगं (गृहियोग ) का अर्थ है —— गृहस्थ का संसर्ग या सम्बन्ध अथवा गृहस्थ का व्यापार (कर्म) । गृहिसम्बन्ध, जैसे—इस लड़की का तूने वैवाहिक सम्बन्ध नहीं किया ? अथवा १४. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) १५. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७५९, ७६० (ख) जिनदासचूर्णि, पृ. २८१ (ग) दशवै. (आ. आत्मा.), पत्र ७५९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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