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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि २८३ यतना है। इसका दूसरा नाम उपयोग, जागृति या सावधानी भी है। धुवं, जोगसा आदि शब्दों के अर्थ धुवं : दो अर्थ ध्रुवनिश्चल होकर, (२) अथवा नित्य नियमित रूप से। जोगसा : चार अर्थ—(१) मनोयोगपूर्वक, (२) उपयोगपूर्वक, (३) प्रमाणोपेत —न हीन करे न अतिरिक्त और (४) सामर्थ्य होने पर। सिंघाणं : सिंघाण–नाक का मैल, लींट। खेलं श्लेष्म कफ। जल्लियं : दो अर्थ—(१) पसीना अथवा (२) शरीर पर जमा हुआ मैल।२ __'जयं चिट्ठ' आदि की व्याख्या जयं चिढ़े : शब्दशः अर्थ है—यतनापूर्वक खड़ा रहे। भावार्थ है-गृहस्थ के घर में साधु झरोखा, जलगृह, सन्धि, शौचालय आदि स्थानों को बार-बार देखता हुआ या आँखों, हाथों को इधरउधर घमाता हआ खडान रहे, किन्तु उचित स्थान में एकाग्रतापूर्वक खडा रहे। मियंभासे गृहस्थ के पूछने पर मनि यतना से एक या दो बार बोले, अथवा प्रयोजनवश बहुत ही संयत शब्दों में उत्तर दे।ण यरूवेसुमणं करे-भिक्षा के समय आहार देने वाली स्त्रियों, मकान तथा सौन्दर्य प्रसाधक वस्तुओं या अन्य वस्तुओं का रूप, आकृति आदि देख कर यह विचार न करे कि–'अहो! कितना सुन्दर रूप है।' रूप की तरह शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श में भी मन न लगाए, यानी आसक्त मोहित न हो। जिस प्रकार रूप का ग्रहण किया है, उसी प्रकार भोज्यपदार्थों के रस आदि के विषय में भी जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साधु ग्लान, रुग्ण, वृद्ध आदि साधुओं की औषधि के लिए या भोजन-पानी लाने के लिए जाए तो वहां गवाक्ष आदि को न देखता हुआ, एकान्त एवं उचित स्थान पर खड़ा हो और अपने आने का प्रयोजन आदि पूछने पर थोड़े शब्दों में ही कहे। दृष्ट, श्रुत और अनुभूत के कथन में विवेक-निर्देश । ४०८. बहुं सुणेइ कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छइ । न य दिटुं सुयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ २०॥ ४०९. सुयं वा जइ वा दिटुं न लवेजो व घाइयं । न य केणइ उवाएणं गिहिजोगं समायरे ॥ २१॥ ४१०. निट्ठाणं रसनिजूढं भद्दगं पावगं ति वा । पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा लाभालाभं न निहिसे ॥ २२॥ ११. (क) दशवै. (संतबालजी),प.३५-३६ १२. (क) 'धुवं णियतं जोगसा जोगसामत्थे सति, अहवा उवउज्जिऊण पुव्विं ति । जोगेण जोगसा ऊणातिरित्तपडिलेहणा वज्जितं वा।' -अगस्त्यचूर्णि, पृ. १८८ (ख) धुवं णाम जो जस्स पच्चुवेक्खणकालो तं तम्मि णिच्चं । जोगसा नाम सति सामत्थे, अहवा जोगसा णाम जं पमाणं भणितं, ततो पमाणाओ ण हीणमहियं वा पडिलेहिजा । • (ग) शक्तिपूर्वक (जोगसा) प्रतिलेखन-सम्यक्तया देखना । -दशवै. पत्राकार (आ. आत्मा.), पृ.७५४ (घ) वही, पत्राकार, पृ.७५५ (ङ) जल्लियं नाम मलो. । ।, -अ. चू., पृ. १८९ १३. (क) जिनदासचूर्णि, पृ. २८० (ख) यतं गवाक्षादीन्यनवलोकयन तिष्ठेदचितदेशे। -हारि. वृत्ति, पत्र २३१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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