SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२ दशवैकालिकसूत्र ४०६. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणं जल्लियं । फासुयं पडिलेहित्ता परिट्ठावेज संजए ॥ १८॥ ४०७. पविसित्तु परागारं पाणट्ठा भोयणस्स वा । ___जयं चिट्टे मियं भासे न य रूवेसु मणं करे ॥ १९॥ [४०५] (संयमी साधु, साध्वी) सदैव यथासमय मनोयोग (या उपयोगपूर्वक स्वस्थ चित्त से एकाग्रतापूर्वक) पात्र, कम्बल, शय्या (शयनस्थान या उपाश्रय), उच्चारभूमि, संस्तारक (बिछौना) अथवा आसन का प्रतिलेखन करे ॥१७॥ [४०६] संयमी (साधु या साध्वी) उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), कफ, नाक का मैल (लीट) और पसीना (आदि अशुचि पदार्थ डालने के लिए) प्रासुक (निर्जीव) भूमि का प्रतिलेखन करके (तत्पश्चात्) उनका (यतनापूर्वक) परिष्ठापन (उत्सर्ग) करे ॥ १८॥ ___ [४०७] पानी के लिए या भोजन के लिए गृहस्थ के (पर) घर में प्रवेश करके साधु (वहां) यतना से खड़ा रहे, परिमित बोले और (वहां मकान, अन्य वस्तुओं तथा स्त्रियों आदि के) रूप में मन को डांवाडोल न करे ॥१९॥ विवेचन–अप्रमाद के तीन सूत्र–प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (४०५ से ४०७) में प्रतिलेखन, परिष्ठापन और क्रियाओं में यतना, इन तीन सूत्रों का आश्रय लेकर अप्रमाद की प्रेरणा दी गई है। प्रतिलेखनसूत्र अपने निश्राय में जो भी वस्त्र, पात्रादि उपकरण या मकान आदि हैं, अथवा जहां साधु को मल-मूत्रादि का विसर्जन करना हो, उस भूमि का अपने नेत्रों से सूक्ष्म रूप से देखना कि यहां कोई जीव-जन्तु तो नहीं है। अगर कोई जीव-जन्तु हो तो उसे किसी प्रकार की हानि न पहुंचे, इस प्रकार से एक ओर कर देना। इस क्रिया को प्रतिलेखन कहते हैं। शास्त्र में साधु के लिए प्रतिलेखन दो बार (प्रातः, सायं) करने का विधान है। परिष्ठापनसूत्र-शरीर के विकार मल, मूत्र, लींट, कफ, पसीना, मैला पानी, भुक्तशेष अन्न या झूठा पानी आदि को जहां-तहां डाल देने से जीवों की उत्पत्ति एवं विराधना होनी सम्भव है, इसलिए परिष्ठापनविधि में चार बातों का विवेक रखना जरूरी है—(१) स्नेहसूक्ष्म आदि जीवों का विनाश न हो, (२) परिठाए हुए पदार्थों में जीवोत्पत्ति की सम्भावना न हो, (३) दर्शक लोगों के हृदय में घृणा पैदा न हो और (४) परठाए हुए पदार्थ रोगोत्पत्ति के कारण न हों। साधुओं के लिए स्थंडिलभूमि या उच्चारभूमि निर्जीव, शुद्ध हो, उसे प्रतिलेखन करके यतनापूर्वक मल-मूत्रादि विसर्जन करने का भगवान् ने विधान किया है।" यतनासूत्र–इनमें चलना-फिरना, खड़े रहना, बैठना, देखना, विचारना, सोना, खाना-पीना आदि सभी क्रियाएं इस प्रकार से विवेकपूर्वक करना, जिससे किसी भी जीव की हिंसा न हो, आघात या हानि न पहुंचे। यही ९. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७५४ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. १०६ (ग) उत्तरा. अ. २६ देखें १०. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७५६ - (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. १०६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy