SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि २६७ वृत्ति के अनुसार ये ही शब्द शुद्ध निरवद्य भावों के कारण निरवद्य क्रियाओं के अनुमोदक भी हो सकते हैं, यथाइसने अमुक रुग्ण मुनि की सेवा की, यह अच्छा किया, इसका वचनविज्ञान परिपक्व है, इसने स्नेह-बन्धन को अच्छी तरह काट दिया है, अच्छा हुआ कि इसने कुपथ पर ले जाते हुए सम्बन्धियों से शिष्य को छुड़ा लिया। अच्छा हुआ कि अमुक मुनि की मृत्यु पण्डितमरण से हुई। यह मुनि साध्वाचार में अच्छी तरह प्रवीण हो गया, इस बालक ने व्रतग्रहण सुन्दर ढंग से किया है। इससे अगली गाथा में इन्हीं क्रियाओं के विषय में निरवद्यवचन बोलने का निर्देश किया गया है। 'कम्महेउयं' आदि पदों के विशिष्ट अर्थ कम्महेउयं कर्महेतुकः शिक्षापूर्वक किया गया, सधे हुए हाथों से किया हुआ अथवा ये सांसारिक या शृंगारादि क्रियाएं कर्मबन्धन की हेतु हैं। अचक्कियं : अविक्किअं: दो पाठ : तीन अर्थ (१) अशक्य—इसका मोल करना अशक्य है, (२) असंस्कृत—यह वस्तु असंस्कृत है, खराब है अथवा (३) अविकेय—यह वस्तु बेचनेयोग्य नहीं है। __ अचियत्तं-अचिंतं : दो पाठ : दो अर्थ (१) अप्रीतिकर या (२) अचिन्त्य। अणुवीइ अनुचिन्त्य पूर्वापर विचार करके या पूर्वोक्त सब वचनविधियों का अनुचिन्तन करके। पणियढे समुप्पन्ने अणवजं वियागरेतात्पर्य व्यवसाय सम्बन्धी पदार्थ के सम्बन्ध में प्रसंग उपस्थित होने पर साधु निरवद्य वचन बोले, जैसे कि जिन मुनियों ने व्यवसाय (व्यापार) छोड़ रखा है, उन्हें क्या अधिकार है कि वे व्यापार के सम्बन्ध में अपनी राय दें। यह अनधिकार चेष्टा है। असंजय असंयत—बैठने, उठने आदि क्रियाओं में सम्यक् यतना—संयमरहित। असंयमी पुरुष लोहे के तपे हुए गोले के समान है उसे जिधर से छुओ, उधर से जला देता है, वैसे ही असंयमी चारों ओर से जीवों को कष्ट देता है। वह सोया हुआ भी अहिंसक नहीं होता।३२ . पक्व आदि विषयों में निरवद्यवचन-विवेक यदि कोई साधु किसी रुग्ण साधु के लिए जरूरत होने पर सहस्रपाक तेल किसी सद्गृहस्थ के यहां से लाया, तब पूछने पर वह कह सकता है बड़े प्रयत्न (आरम्भ) से पकाया गया है। वन में विहार करते समय कटे हुए वृक्षों को देख कर मुनि अन्य मुनियों से कह सकता है—यह वन ३१. (क) उत्तरा. कमल सं. १/३६ (ख) उत्त. ने. वृ. १/३६ (ग) आचा. चू. ४/२३ (घ) निरवद्यं तु सुकृतमनेन धर्मध्यानादि, सुपक्वमस्य वचनविज्ञानादि, सुच्छिन्नं स्नेह-निगडादि, सुहृतोऽय मुत्प्रवाजयितु कामेभ्यो निजकेभ्यः शैक्षकः, सुमृतमस्य पण्डितमरणेन, सुनिष्ठितोऽयं साध्वाचारे, सुलष्टोऽयं दारको व्रतग्रहणस्येत्यादिरूपम् । –उत्तरा. नेमि. वृत्ति. १/३६ ३२. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७०१ (ख) 'कम्महेउयं नाम सिक्खा पुव्वगं ति वृत्तं भवति ।' -जिनदासचूर्णि, पृ. २५९ (ग) अचक्कियं नाम असक्कं, को एतस्स मोल्लं करेउं समत्थो त्ति, एवं अचक्कियं भण्णइ अचिंतं नाम ण एतस्स गुणा अम्हारिसेहिं पागएहिं चिंतिजंति । -जिनदासचूर्णि, पृ. २६० (घ) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.७०९ (ङ) 'नाऽधिकारोऽत्र तपस्विनां व्यापाराभावात् ।' —हारि.वृत्ति, पत्र २२१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy