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________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि २६१ [३६५] इसी प्रकार (विचारशील साधु या साध्वी)—'ये गेहूं, ज्वार, बाजरा, चावल आदि धान्यरूप औषधियां पक गई हैं तथा (चौला, मूंग आदि की फलियां) नीली (हरी) छवि (छाल) वाली (होने से अभी अपक्व) हैं, (ये धान्य) काटने योग्य हैं, ये भूनने योग्य हैं, अग्नि में सेक (अर्धपक्व) कर खाने योग्य हैं, इस प्रकार न कहे ॥ ३४॥ ___[३६६] (यदि प्रयोजनवश कुछ कहना हो तो) ये (गेहूं आदि अन्नरूप) औषधियां अंकुरित (प्ररूढ) हो गई हैं, प्रायः निष्पन्न हो गई हैं, स्थिरीभूत हो गई हैं, उपघात से पार हो गई हैं। अभी कण गर्भ में हैं (सिट्टे नहीं निकले हैं) या कण गर्भ से बाहर निकल आये हैं, या सिट्टे परिपक्व बीज वाले हो गये हैं, इस प्रकार बोले ॥ ३५ ॥ विवेचन वृक्षों और वनस्पतियों के विषय में अवाच्य एवं वाच्य का निर्देश प्रस्तुत १० सूत्रगाथाओं (३५७ से ३६६ तक) में से प्रथम ६ गाथाओं में वृक्षों के सम्बन्ध में, तत्पश्चात् दो गाथाओं में फलों के सम्बन्ध में और अन्त में दो गाथाओं में औषधियों (विविध धान्यों) के विषय में सावधभाषा बोलने का निषेध और साधुमर्यादोचित निरवद्य भाषा बोलने का विधान किया गया है। वृक्षों एवं वनस्पतियों के सम्बन्ध में निषेध (अवाच्य) का कारण किसी वृक्ष को देख कर चौकी, पट्टा, खाट, कुर्सी आदि चीजें इस वृक्ष से बन सकती हैं, इस प्रकार कहने से वनस्वामी व्यन्तरादि देव के कुपित हो जाने की संभावना है, अथवा वृक्ष के विषय में साधु के द्वारा इस प्रकार का सावध कथन सुन कर संभव है कोई उस वृक्ष को अपने कार्य के लिए उपयुक्त जानकर छेदन-भेदन करे। इस प्रकार के सावध वचन से साधु की भाषासमिति एवं वचनगुप्ति की रक्षा न होने से वह दोषयुक्त हो जाती है, जिससे संयमरक्षा या आत्मरक्षा खतरे में पड़ जाती है। अवाच्य होने का यही कारण वनस्पतियों के विषय में भी समझना चाहिए।२० साधु या साध्वी को विशेष रूप से यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें वृक्षों, फलों या धान्यों आदि के विषय में तभी निरवद्य भाषा में बोलना उचित है, जब कोई विशेष प्रयोजन हो। बिना किसी कारण के यों ही लोगों को वृक्षों आदि के सम्बन्ध में कहते रहने से भाषा में निरवद्यता के स्थान पर सावधता आए बिना नहीं रह सकती। हित, मित एवं निरवद्य भाषण में ही संयमरक्षा एवं आत्मरक्षा है।" ____ 'पासाय' आदि शब्दों के अर्थ –पासाय : प्रासाद–एक खम्भे वाला मकान, या जिसे देख कर लोगों का मन और नेत्र प्रसन्न हों। फलिहऽग्गला परिघ अर्गल नगरद्वार की आगल को परिघ और गृहद्वार की आगल को अर्गला कहते हैं। उदगदोणिणं उदकद्रोणि : चार अर्थ (१) एक काष्ठ से निर्मित जलमार्ग, (२) काष्ठ की बनी हुई प्रणाली (घड़िया) जिससे रेंहट आदि के जल का संचार हो। (३) रेंहट की घड़ियां, जिसमें पानी डालें, वह जलकुण्डी या (४) काष्ठनिर्मित बड़ी कुण्डी, जो कम पानी वाले देशों में भर कर रखी जाती है। चंगबेरे काष्ठपात्री, चंगेरी। मइय मयिक बोए हुए खेत को सम करने के लिए उपयोग में आने वाला एक कृषि-उपकरण। गंडिया -गण्डिका : चार अर्थ—(१) सुनारों की एरन, (२) काष्ठनिर्मित अधिकरिणी, (३) काष्ठफलक या (४) प्लवनकाष्ठ (जल पर तैरने के लिए काष्ठ—जलसंतरण)। उवस्सय–उपाश्रय : दो अर्थ (१) आश्रयस्थान २०. (क) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ६७९, ६८५ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ९४ । २१. दशवैकालिक पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ.६८२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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