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________________ २६० दशवैकालिकसूत्र ३६३. तहा फलाई पक्काइं पायखजाइं नो वए । वेलोइयाई टालाई वेहिमाई ति नो वए ॥ ३२॥ ३६४. असंथडा इमे अंबा बहुनिव्वट्टिमा-फला+ । वएज बहुसंभूया भूयरूव त्ति वा पुणो ॥ ३३॥ ३६५. तहेवोसहीओ पक्काओ, नीलियाओ छवीइय । लाइमा भजिमाओ त्ति, पिहुखजत्ति नो वए ॥ ३४॥ ३६६. विरूढा बहुसंभूया थिरा ऊसढा वि य । गब्भियाओ पसूयाओ ससाराओ त्ति आलवे ॥ ३५॥ [३५७-३५८] इसी प्रकार उद्यान में, पर्वतों पर अथवा वनों में जाकर (अथवा गया हुआ या रहा हुआ) (वहां) बड़े-बड़े वृक्षों को देखकर प्रज्ञावान् साधु इस प्रकार न बोले—'ये वृक्ष प्रासाद, स्तम्भ, तोरण (नगरद्वार), घर, (नाना प्रकार के गृह), परिघ, अर्गला एवं नौका तथा जल की कुंडी (उदक-द्रोण या रेंहट की घड़िया) बनाने के लिए उपयुक्त योग्य हैं' ॥ २६-२७॥ [३५९] (ये वृक्ष) पीठ (चौकी या बाजोट), काष्ठपात्र (चंगबेर), हल (नंगल), तथा मयिक (मड़े- बोये हुए बीजों को या अनाज के ढेर को ढांकने के लिए लकड़ी के ढक्कन), यंत्र-यष्टि (कोल्हू की लाट), गाड़ी के पहिये की नाभि अथवा अहरन (गण्डिका) रखने की काष्ठनिर्मित वस्तु के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, (इस प्रकार न कहे।) ॥ २८॥ . ___ [३६०] (इसी प्रकार इस वृक्ष में) आसन, शयन (सोने के लिए पट्टा), यान (रथ आदि) और उपाश्रय के लिए उपयुक्त कुछ (काष्ठ) हैं—इस प्रकार की भूतोपघातिनी (प्राणिसंहारकारिणी) भाषा प्रज्ञासम्पन्न साधु (या साध्वी) न बोले ॥२९॥ [३६१-३६२] (कारणवश) उद्यान में, पर्वतों पर या वनों में जा कर (रहा हुआ या गया हुआ) प्रज्ञावान् साधु वहां बड़े-बड़े वृक्षों को देख (प्रयोजनवश कहना हो तो) इस प्रकार (निरवद्यवचन) कहे-'ये वृक्ष उत्तम जाति वाले हैं, दीर्घ (लम्बे) हैं, गोल (वृत्त) हैं, महालय (अति विस्तृत या स्कन्धयुक्त) हैं, बड़ी-बड़ी फैली हुई शाखाओं वाले एवं छोटी-छोटी प्रशाखाओं वाले हैं तथा दर्शनीय हैं, इस प्रकार बोले ॥ ३०-३१॥ __ [३६३] तथा फल परिपक्व हो गए हैं, (अथवा) पका कर खाने के योग्य हैं, (इस प्रकार साधु-साध्वी) न कहें। तथा ये फल (ग्रहण)-कालोचित (अविलम्ब तोड़नेयोग्य) हैं, इसमें गुठली नहीं पड़ी, (ये कोमल) हैं, ये दो टुकड़े (फांक) का, योग्य हैं—इस प्रकार भी न बोले ॥ ३२॥ [३६४] (प्रयोजनवश बोलना पड़े तो) 'ये आम्रवृक्ष फलों का भार सहने में असमर्थ हैं, बहुनिवर्तित (बद्धास्थिक हो कर प्रस: निष्पन्न) फल वाले हैं, बहु-संभूत (एक साथ बहुत-से उत्पन्न एवं परिपक्व फल वाले) हैं अथवा भूतरूप (बद्धास्थिक होने से कोमल अथवा अद्भुतरूप वाले) हैं, इस प्रकार बोले ॥३३॥ पाठान्तर- + बद निलडिमा फला ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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