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________________ २६२ दशवकालिकसूत्र अथवा (२) उपाश्रय—साधुओं के रहने का स्थान। दीहा वट्टा महालया वृक्ष के ये विशेषण हैं। नारिकेल, ताड़ आदि वृक्ष दीर्घ (लम्बे) होते हैं। अशोक नन्दी आदि वृक्ष वृत्त (गोल) होते हैं, बरगद आदि वृक्ष महालय होते हैं, जो अत्यन्त विस्तृत होने से अनेकविध पक्षियों के लिए आधारभूत हों। पयायसाला प्रजातशाखा—जिनके बड़ीबड़ी शाखाएं फटी हों। विडिमा विटपी : दो अर्थ (१) स्कन्धों से निकली हुई शाखाएं अथवा (२) प्रशाखाएं जिनमें फूट गई हों। पायखज्जाइं पाकखाद्य—पका कर खाने के योग्य। वेलोचित—जो फल पक्का हो जाने पर डाल पर लगा नहीं रह सकता, तत्काल तोड़ने योग्य फल। टालाई जिस फल में अभी तक गुठली न पड़ी हो, अबद्धास्थिक कोमल फल 'टाल' कहलाते हैं। वेहिमाई द्वेधीकरणयोग्य—जिनमें गुठली न पड़ी हो तथा दो विभाग करने योग्य।असंथडा–फल धारण करने में अपर्याप्त—असमर्थ। बहुनिवट्टिमा बहुनिवर्तित –अधिकांश निष्पन्न फल वाले। ओसहीओ ओषधियां चावल, गेहूं आदि धान्य या एक फसल वाला पौधा। नीलियाओहरी या अपक्व। छवीइय–छवि त्वचा (छाल) या फली वाली। पिहुखजा : दो अर्थ (१) अग्नि में सेक कर खाने योग्य, अथवा२ (२) पृथुक (चिड़वा) बना कर खाने योग्य। _ 'रूढा' आदि शब्दों की व्याख्या बीज अंकुरित होने से लेकर पुनः बीज बनने तक की सात अवस्थाएं वनस्पति की हैं। उन्हीं का सूत्रगाथा ३६६ में उल्लेख है। (१) रूढ बीज बोने के बाद जब वह प्रादुर्भूत होता है तो दोनों बीजपत्र एक दूसरे से अलग-अलग हो जाते हैं, भ्रूणाग्र को बाहर निकलने का मार्ग मिलता है, इस अवस्था को 'रूढ' कहते हैं। (२) सम्भूत—पृथ्वी पर आने पर बीजपत्र का हरा हो जाना और बीजांकुर का प्रथम पत्ती बन जाना। (३) स्थिर-भ्रूणमूल का नीचे की ओर बढ़ कर जड़ के रूप में विस्तृत हो जाना। (४) उत्सृत-भ्रूणाग्र स्तम्भ के रूप में आगे बढ़ना। (५) गर्भित-आरोह पूर्ण हो जाना, किन्तु भुट्टा या सिट्टा न निकलने की अवस्था।(६) प्रसूत–भुट्टा या सिट्टा निकलना और (७) ससार—दाने पड़ जाना। अगस्त्यचूर्णि के अनुसार रूढ को अंकुरित, बहुसम्भूत को सुफलित, उपघातमुक्त बीजांकुर की उत्पादक शक्ति को स्थिर, सुसंवर्धित स्तम्भ को उत्सृत, भुट्टा न निकलने को गर्भित, भुट्टा निकलने की प्रसूत और दाने पड़ने को ससार कहा जाता है। ___ साधु को फलों के विषय में आरम्भ-समारम्भ-जनक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि साधु के मुख से इस फल को इस प्रकार खाना चाहिए, इत्यादि सावध वचन सुन कर गृहस्थ उसके आरम्भ में प्रवृत्त हो सकता है, जिससे अनेक दोष सम्भव हैं।२४ २२. (क) हारि. वृ. पत्र २५८ (ख) अग. चूर्णि, पृ. १७१ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र २१८ (घ) अ. चूर्णि, पृ. १८१ २३. (क) विरूढा—अंकुरिता । बहुसम्भूता-सुफलिता। जोग्गादि उवघातातीताओ थिरा।सुसंवड्डिता-उस्सढा। अणिव्विसूणाओ गब्भिणाओ। णिव्विसूताओ-पसूताओ सव्वोवघात-रहिताओ सुणिप्फण्णाओ ससाराओ ।-अ.चू., पृ. १७३ (ख) रूढाः –प्रादुर्भूतः, बहुसम्भूता' निष्पन्नप्रायाः ...उत्सृता-उपघातेभ्यो निर्गता इति वा । तथा गर्भिता:-अनिर्गतशीर्षकाः, प्रसूताः-निर्गतशीर्षकाः, ससाराः-संजात-तन्दुलादिसाराः ।। -हारि. वृत्ति, पत्र २१९ २४. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) . (ख) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ६८३, ६८५
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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