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________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि २५७ सम्बोधन शब्द है। इसका प्रयोग महाराष्ट्र या वरदातट में होता था। ये शब्द काम-राग के सूचक हैं। हला शब्द-प्रयोग लाटदेश में होता था। अन्ने' शब्दप्रयोग महाराष्ट्र में वेश्याओं के लिए होता था। यह नीच सम्बोधन है। भट्टे' पुत्ररहित स्त्री के लिए या लाटदेश में ननद के लिए प्रयुक्त होता था। यह सम्बोधन प्रशंसासूचक है। सामिणी (स्वामिनी) शब्द, तथा गोमिणी (गोमिनि) अर्थात् गायवाली लाटदेश में प्रयुक्त होने वाले सम्मानसूचक अथवा चाटुतासूचक शब्द हैं। होले (गंवारिन), गोले (गोली, जारजा—दासी), वसुले (छिनाल) ये तीनों गोल देश में प्रयुक्त होते थे। ये तीनों शब्द निर्लज्जतासूचक हैं।" सम्बोधन के लिए उपयुक्त शब्द सूत्रगाथा ३४८ में साधु-साध्वियों द्वारा स्त्रियों के सम्बोधनार्थ एवं ३५१ में पुरुषों के सम्बोधनार्थ दो उपयुक्त नामों का निर्देश किया है—(१) गोत्रनाम और (२) व्यक्तिगत नाम। आशय यह है कि यदि किसी महिला अथवा पुरुष का नाम याद हो तो उस नाम से सम्बोधित करना चाहिए। यथा—(स्त्री को) देवदत्ता, कल्याणी बहन, मंगलादेवी आदि, (पुरुष को) इन्द्रभूति, नाम ज्ञात न हो तो गोत्र से सम्बोधित करना चाहिए। यथा (स्त्री को) हे गौतमी!, हे काश्यपी! (पुरुष को) जैसे—गणधर इन्द्रभूति को गौतम, भगवान् महावीर को काश्यप। यदि नाम और गोत्र दोनों ज्ञात न हों तो वय, देश, गुण, ईश्वरता (प्रभुता) आदि की अपेक्षा से स्त्री या पुरुष को सभ्यतापूर्ण, शिष्टजनोचित एवं श्रोतृजनप्रिय शब्दों से सम्बोधित करना चाहिए। यथा—(स्त्री को) हे मांजी, वयोवृद्धे, हे भद्रे! हे धर्मशीले! हे सेठानीजी! (पुरुष को) हे धर्मप्रिय, हे देवानुप्रिय! हे भद्र!, हे धर्मनिष्ठ! इत्यादि मधुरशब्दों से सम्बोधित करना चाहिए। इसके लिए शास्त्रकार ने कहा है—'जहारिहमभिगिज्झ' अर्थात् यथायोग्य, जहां जिसके लिए अवस्था आदि की दृष्टि से जो शब्द उचित हो, उस सुन्दर शब्द से गुणदोष का विचार करके बोले। - पुरुष को आर्यक आदि शब्दों से सम्बोधन का निषेध : क्यों?—सूत्रगाथा ३४९-३५० में बताया गया है कि आर्यक आदि सांसारिक कौटुम्बिक सम्बोधनों से सम्बोधन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे रागभाव, मोह या आसक्ति बढ़ने की आशंका है। द्वितीय गाथा में उक्त होल, गोल, वसुल आदि शब्द भी निन्दा-स्तुति-चाटुतादि सूचक होने से दोषोत्पादक हैं। विशेष वक्तव्य पूर्वोक्त स्त्री-सम्बोधन-प्रकरण में कह दिया गया है।६ पंचेन्द्रिय-प्राणियों के विषय में बोलने का निषेध-विधान ३५२. पंचिंदिआण पाणाणं एस इत्थी अयं पुमं । जाव णं न वियाणेज्जा ताव, 'जाइ' त्ति आलवे ॥ २१॥ ३५३. तहेव माणुसं पसुं, पक्खिं वा वि सरीसिवं । थूले पमेइले वझे, पाइमे त्ति य नो वए ॥ २२॥ १४. (क) अ.चू., पृ.१६८ . (ख) जिनदासचूर्णि, पृ. २५० १५. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ३५३ (ख) दशवै. पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ६६० (ग) अभिगिझ नाम पुव्वमेव दोसगुणे चिंतेऊण । १६. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पत्राकार, पृ. ६६२ , —जिनदासचूर्णि, पृ. २५१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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