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सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि
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प्रकार से) न जानता हो, उसके विषय में 'यह इसी प्रकार है, ऐसा नहीं बोलना चाहिए ॥ ८॥
[३४०] अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जिस अर्थ (बात) के विषय में शंका हो, (उसके विषय में)—'यह ऐसा ही है', इस प्रकार नहीं कहना चाहिए ॥९॥
[३४१] अतीत, वर्तमान और अनागत काल सम्बन्धी जो अर्थ निःशंकित हो, उसके विषय में 'यह इस प्रकार है,' ऐसा निर्देश करे (कहे) ॥१०॥
विवेचन निश्चयकारी भाषा का निषेध–प्रस्तुत ५ सूत्रों में से चार सूत्रों में (३३७ से ३४० तक) में तीनों काल से सम्बन्धित निश्चयकारी भाषा का निषेध तथा ३४१ सूत्रगाथा में त्रिकालसम्बन्धी निर्णय करने के पश्चात् निःशंकित होकर दीर्घदृष्टि से विचार कर निश्चित रूप से कहने का विधान भी किया है।
निश्चयकारी भाषा : स्वरूप तथा निषेध का कारण पूर्व सूत्र (३३६वीं) गाथा में 'वेषशंकित' भाषा का निषेध था, इन चार सूत्रों में क्रियाशंकित' भाषा का निषेध है। तीनों कालों के विषय में निश्चयात्मक वचन इस प्रकार का होता है—भविष्यत्कालीन—'यह कार्य अवश्य ही ऐसा होगा, कल मैं अवश्य ही चला जाऊंगा, इत्यादि।' भविष्य अज्ञात होता है, अव्यक्त होता है। न मालूम कब कौन-सा विघ्न आ जाए और वह कार्य पूरा न हो। तब निश्चय-वक्ता को झूठा बनना पड़ता है। वर्तमानकालीन—'स्त्रीवेषधारी पुरुष को देख कर यह कहना कि यह स्त्री ही है।' भूतकालीन भूतकाल में जिसका निर्णय ठीक से नहीं हुआ, उस विषय में निश्चित रूप से कह देना कि वह ऐसा ही था। यथा-वह गाय ही थी या बैल ही था।' इस प्रकार त्रिकालसम्बन्धित शंकायुक्त निश्चयात्मक भाषा है, जिसका प्रयोग साधु-साध्वी को नहीं करना चाहिए। इस प्रकार कह देने से नाना उपद्रव खड़े हो सकते हैं। जैन शासन की लघुता हो सकती है। अबोधदशा में कह देने से उक्त साधु-साध्वी के प्रति लोकश्रद्धा डगमगा सकती है।
कैसे बोला जाए ? शास्त्रकार ने भूतकालीन, भविष्यकालीन या वर्तमानकालीन निश्चयकारी भाषा का निषेध किया है, किन्तु कोई साधु या श्रावक या गुरु किसी भूत, भविष्य या वर्तमानकालिक किसी कार्य, व्यक्ति या वस्तु के विषय में पूछे तो उन्हें क्या कहा जाए? कैसे बोला जाए, जिससे भाषासम्बन्धी दोष न लगे? इसका समाधान यह है कि जिस विषय में वक्ता को सन्देह हो, या पूरा ज्ञान न हो, जो विषय अनिर्णीत हो, उसके विषय में निश्चयात्मक भाषा नहीं बोलनी चाहिए, कि ऐसा करूंगा, ऐसा होगा, ऐसा ही था, यही हो रहा है, इत्यादि। किन्तु प्रत्येक वाक्य के साथ व्यवहार शब्द का प्रयोग करना चाहिए, जिससे भाषा निश्चयकारी न रहे। जहां सन्देह हो, वहां कहना चाहिए–'व्यवहार से ऐसा है, मुझे जहां तक स्मरण है, मेरा अनुभव है कि ऐसा है या ऐसा था।"वहां जाने के भाव हैं,' सम्भव है, यह इस प्रकार का रहा हो। अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की भाषा में बोलने का अभ्यास करना चाहिए। इस गाथा का आशय यह है कि जिस विषय में किसी प्रकार की शंका न रही हो, जिस तथ्य को यथार्थरूप से जान लिया हो, उसके विषय में साधु या साध्वी निश्चयात्मक कथन कर सकता है। एक बात ओर है साधु-साध्वी को किसी विषय में जैसा जाना, सुना, समझा और प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम एवं उपमान आदि प्रमाणों से सोचा-समझा हो, तदनुसार हित, मित एवं यथार्थ कथन करना चाहिए, क्योंकि जिस प्रमाण की अपेक्षा से जो कहा जाता है, वह ८. तहेवाणागतं अटें जं वऽण्णऽणुवधारितं । संकितं पडुपण्णं वा, एवमेयं ति णो वदे ॥८॥
-अगस्त्यचूर्णि, गाथा ८ एसो आसण्णो, अणागतो विकिट्ठो । अणुवधारितं—अविण्णातं ।
-अ.चू., पृ. १६६