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दशवकालिका उस प्रमाण के अनुसार निश्चयात्मक कथन है। सत्य, किन्तु पीड़ाकारी कठोर भाषा का निषेध
३४२. तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी ।
सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥ ११॥ ३४३. तहेव काणं काणेत्ति, पंडगं 'पंडगे' त्ति वा ।
वाहियं वा वि रोगि ति, तेणं चोरे त्ति नो वए ॥ १२॥ ३४४. एएणऽन्नेण अद्वेण परो जेणुवहम्मई ।
आयारभाव-दोसण्णू ण तं भासेज पण्णवं ॥१३॥ [३४२] इसी प्रकार जो भाषा कठोर हो तथा बहुत (या महान्) प्राणियों का उपघात करने वाली हो, वह सत्य होने पर भी बोलने योग्य नहीं है, क्योंकि ऐसी भाषा से पापकर्म का बन्ध (या आस्रव) होता है ॥११॥
_ [३४३] इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक (पण्डक) को नपुंसक तथा रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे ॥१२॥ __ [३४४] इस (पूर्वगाथा में उक्त) अर्थ (भाषा) से अथवा अन्य (इसी कोटि की दूसरे) जिस अर्थ (भाषा) से कोई प्राणी पीड़ित (उपहत) होता है, उस अर्थ (भाषा) को आचार (वचनसमिति तथा वाग्गुप्ति-गत आचरण) सम्बन्धी भावदोष (प्रद्वेष-प्रमाद-रूप वैचारिक दोष) को जाननेवाला प्रज्ञावान् साधु (कदापि) न बोले ॥१३॥
विवेचन–परपीडाकारी भाषा सत्य होते हुए भी त्याज्य-प्राणियों के चित्त को आघात पहुंचाने वाली, कठोर, कटु, कर्कश, एवं पीड़ित करने वाली भाषा भले ही सत्य हो, किन्तु उसका प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। ___ नेत्र-पीड़ा के कारण किसी व्यक्ति की एक आंख जाती रही, उसे काना कहना, अन्धे को अन्धा कहना, अथवा रोगी को रोगी या चोर को चोर कहना सत्य है, फिर ऐसे कथन का निषेध क्यों किया गया? इसका समाधान यह है, जो भाषा स्नेहरहित या कोमलता से रहित होने के कारण कठोर या कटु है, जिसे सुनकर दूसरे प्राणी को मन में चोट पहुंचती है, जो भाषा मर्मभेदिनी है, प्राणियों की विघातक है, वह भाषा सच्ची होने पर भी बोलने योग्य नहीं है। यद्यपि वह भाषा बाह्य अर्थ की अपेक्षा से सत्य मालूम होती है, किन्तु भावार्थ की अपेक्षा से वह प्राणियों के लिए हितकरसुखकर न होने से असत्यरूप है। छोटे या बड़े किसी भी जीव की घात करने वाली भाषा मुनि के लिए अवक्तव्य है। जिस प्रकार असत्यभाषण से पापकर्म का बन्ध होता है, उसी प्रकार ऐसी पीड़ाकारी कठोर भाषा के बोलने से. पापकर्मों का आगमन होता है। काना आदि अपमानजनक शब्दों से दूसरे को सम्बोधन करने से उसके हृदय को तीव्र दुःख पहुंचता है, वह मन में अत्यधिक लज्जित होता है, आत्महत्या के लिए भी उतारू हो सकता है। जो साधु-साध्वी दीर्घ दृष्टि से सोचे बिना ही परपीडाकारी कठोर भाषा का प्रयोग करते हैं, या मर्मयुक्त वचन बोलते हैं, अन्य आत्मा
९. (क) दशवैकालिक पत्राकार (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ६५१ (ख) तहेवाणागतं अत्थं जं होति अवहारियं ।
निस्संकियं पडुप्पण्णे एवमेयंति णिद्दिसे ॥ (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. ३५१
-जिनदासचूर्णि, पृ. २४८