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________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा २४१ निरखने से और उनके साथ बातचीत करने तथा अतिपरिचय होने से चित्त कामरागवश चंचल होने से ब्रह्मचर्य का विनाश सम्भव है। (३) अतिसंसर्ग के कारण रागभावावश साधु के लिए नाना प्रकार का स्वादिष्ट भक्त-पान तैयार किया जा सकता है, जिससे प्राणियों का वध होना स्वाभाविक है। (४) जो भिक्षाचर घर पर मांगने आते हैं, उनको अन्तराय होता है, क्योंकि देने वाले सब साधु की सेवा में बैठ जाते हैं, साधु को बुरा लगेगा, यह सोच कर गृहिणी उन भिक्षाचरों की ओर ध्यान नहीं देती। फलतः वे निराश होकर लौट जाते हैं। (५) घर के स्वामी को, साधु के इस प्रकार घर में बैठने से उसके चारित्र के प्रति शंका होती है। 'इत्थीओ वावि संकणं' से यह अर्थ किया गया हैस्त्री के प्रफुल्ल बदन और कटाक्ष आदि की अनेक कामोत्तेजक चेष्टाएँ देख कर लोग उसके प्रति शंका करने लगते हैं कि इस स्त्री का मुनि से लगाव दिखता है। वैसे ही मुनि के प्रति भी शंकाशील हो जाते हैं कि यह साधु ब्रह्मचर्य से पतित है। निसिज्जा जस्स कप्पइ—पहले उत्सर्ग के रूप में गृहस्थ के घर में बैठने का साधु के लिए निषेध किया गया था। इस सूत्र में अपवाद रूप से तीन प्रकार के साधुओं के लिए गृहस्थ के घर में बैठना परिस्थितिवश कल्पनीय बताया है साधु यदि (१) रोगिष्ठ, (२) उग्र तपस्वी या (३) वृद्धावस्था से पीड़ित हो। रोग, उग्र तप या बुढ़ापा देह को शिथिल बना देता है, इस कारण गोचरी के लिए गया हुआ भिक्षु कदाचित् हांफने लगे या थक जाए तो गृहस्थ के यहां घर के लोगों से अनुज्ञा मांग कर अपनी थकान मिटाने या विश्राम लेने हेतु थोड़ी देर तक विवेकपूर्वक बैठ सकता है। यह अपवाद मार्ग है। इसका एक या दूसरे प्रकार से लाभ लेकर कोई अनर्थ न कर बैठे, इसलिए प्रत्येक स्थिति में विवेक करना अनिवार्य है। सत्तरहवां आचारस्थान : स्नानवर्जन ३२३. वाहिओ वा अरोगी वा सिणाणं जो उ पत्थए । ___वोक्कंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ॥ ६०॥ ३२४. संतिमे सुहमा पाणा घसासु भिलुगासु* य । जे उ भिक्खू सिणायंतो,+ वियडेणुप्पिलावए ॥ ६१॥ ४७.. (क) दसवैकालिकसूत्रम् (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३७१ (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. ८५ (ग) अबोहिकारि अबोहिकं । —अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५४ अबोहिं नाम मिच्छत्तं । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२९ (घ) कहं बंभचेरस्स विवत्ती होजा? अवरोप्परओ-संभास-अन्नोऽन्नदंसणादीहिं बंभचेरविवत्ती भवति । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२९ (ङ) तत्थ य बहवे भिक्खायरा एंति.....ते तस्स अवण्णं भासंति ।। -जिनदासचूर्णि, पृ. २३० ४८. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ.८४ (ख) दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. ४५ (ग) जराए अभिभूयगाहणे णं अतिकट्ठपत्ताए जराए वजति । अत्तलाभिओ वा अनिकिट्ठतवस्सी वा एवमादि । -जिनदासचूर्णि, पृ. २३०-२३१ पाठान्तर- * भिलगासु + जे अभिक्खू सिणायंति ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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