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दशवैकालिकसूत्र
सोलहवां आचारस्थान : गृहनिषद्या-वर्जन
३१९. गोयरग्गपविट्ठस्स निसेज्जा जस्स कप्पई ।
इमेरिसमणायारं आवजइ अबोहियं ॥५६॥ ३२०. विवत्ती बंभचेरस्स पाणाणं* च वहे वहो ।
वणीमागपडिग्याओ पडिकोहो य अगारिणं ॥५७॥ ३२१. अगुत्ती बंभचेरस्स इत्थीओ यावि संकणं ।
कुसीलवगुणं ठाणं दूरओ परिवजए ॥ ५८॥ ३२२. तिण्हमन्नयरागस्स निसेजा जस्स कप्पई ।।
जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तवस्सिणो ॥ ५९॥ [३१९] भिक्षा के लिए प्रविष्ट जिस (साधु) को (गृहस्थ के घर में) बैठना अच्छा लगता है, वह इस प्रकार के (आगे कहे जाने वाले) अनाचार को (तथा उसके) अबोधि (रूप फल) को प्राप्त होता है ॥५६॥
[३२०] (गृहस्थ के घर में बैठने से) ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन न करने में विपत्ति खड़ी हो जाती है। प्राणियों का वध होने से संयम का घात हो जाता है और भिक्षाचरों को अन्तराय और घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है ॥५७॥
___[३२१] (गृहस्थ के घर में बैठने से) ब्रह्मचर्य की असुरक्षा (अगुप्ति) होती है, स्त्रियों के प्रति भी शंका उत्पन्न होती है। अतः यह गृहस्थगृहनिषद्या कुशीलता बढ़ाने वाला स्थान (भयस्थल) है, (अतः साधु) इसका दूर से ही परिवर्जन कर दे ॥५८॥
- [३२२] जरा (बुढ़ापे) से ग्रस्त, व्याधि (रोग) से पीड़ित और (उग्र) तपस्वी, इन तीनों में से किसी के लिए गृहस्थ के घर में बैठना कल्पनीय है ॥५९॥
विवेचन -गृहस्थ के घर में बैठने से दोष—प्रस्तुत ४ गाथाओं (३१९ से ३२२ तक) में गृहस्थ के घर में बैठने से होने वाले दोषों का उल्लेख किया है। मुख्य दोष निम्नलिखित बताए हैं—(१) अनाचार-प्राप्ति, (२) अबोधिकारक फल (मिथ्यात्व) की प्राप्ति, (३) ब्रह्मचर्य के आचरण में विपत्ति, (४) प्राणियों का वध होने से संयम का घात, (५) भिक्षाचरों के अन्तराय लगता है, जिससे उन्हें आघात पहुंचता है, (६) ब्रह्मचर्य असुरक्षित हो जाता है एवं (७) स्त्रियों के प्रति शंका।
'अणायारं' आवजइ अबोहियं : आशय—(१) गृहस्थ के घर में बैठने या कथावार्ता करने से साधु का साध्वाचारपथ से गिर कर अनाचारपथ पर पहुंच जाना सम्भव है। एक बार अनाचार प्राप्त होने से साधक किसी भी तुच्छ निमित्त को पाकर सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जाता है और क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव, जो अत्यन्त सत्प्रयत्नों से प्राप्त होते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं और साधक औदयिकभाव में पहुंच कर मिथ्यात्वग्रस्त हो जाता है। (२) घर में इधरउधर डोलती-फिरती, सोती एवं बैठती स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों को बार-बार देखने तथा उनकी मनोज्ञ इन्द्रियों को
पाठान्तर-
अवहे वहो ।