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________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा २३९ ३१८. गंभीरविजया एए पाणा दुप्पडिलेहगा । आसंदी पलियंको य एयमटुं विवज्जिया ॥५५॥ [३१६] आर्य (एवं आर्याओं) के लिए आसन्दी और पलंग पर, मंच (खाट) और आसालक (सिंहासन या आरामदेह लचीली कुर्सी) पर बैठना या सोना अनाचरित है ॥५३॥ [३१७] तीर्थंकरदेवों (बुद्धों) द्वारा कथित आचार का पालन करने वाले निर्ग्रन्थ (विशेष परिस्थिति में बैठना पड़े तो) बिना प्रतिलेखन किये, न तो आसन्दी, पलंग पर बैठते हैं और न गद्दी या आसन (निषद्या) पर बैठते हैं, न ही पीढ़े पर बैठते (उठते या सोते) हैं ॥ ५४॥ __[३१८] ये (सब शयनासन) गम्भीर छिद्र वाले होते हैं, इनमें सूक्ष्म प्राणियों का प्रतिलेखन करना दुःशक्य होता है, इसलिए आसन्दी एवं पर्यंक (तथा मंच आदि) पर बैठना या सोना वर्जित किया है ॥ ५५॥ विवेचनपर्यंक आदि पर सोने-बैठने का वर्जन क्यों ?—प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (३१६ से ३१८) में पर्यंक आदि पर सोने-बैठने के निषेध के कारणों की मीमांसा तथा आपवादिक रूप से प्रतिलेखनपूर्वक बैठने-सोने का प्रतिपादन किया है। पर्यंक आदि पर बैठने सोने का निषेध करने के पीछे एक प्रबल कारण यह दिया है कि ये सब शयन-आसन गम्भीर (पोले) छिद्र वाले अथवा इनके विभाग अप्रकाशकर होते हैं। इसलिए वहां रहे हुए जीवों का भलीभांति प्रतिलेखन नहीं हो सकता। किसी विशेष परिस्थिति में राजकुलादि में धर्मकथा आदि करने हेतु कदाचित् बैठना पड़े तो प्रतिलेखन किये बिना न बैठे। पलियंक आदि पदों के विशेष अर्थ आसंदी-भद्रासन, पलियंक—पर्यंक—पलंग। मंचमांचा, खाट या चारपाई। आशालक जिसमें सहारा हो, ऐसा सुखकारक-आसन । वर्तमान काल में इसे आरामकुर्सी आदि कहते हैं। निसिजा—निषद्या—एक या अनेक वस्त्रों से बना हुआ आसन या गद्दी। पीढए-पीठ, पीढा। जिनदासचूर्णि के अनुसार यह पीढा पलाल का और वृत्ति के अनुसार बेंत का बना हुआ होता है। गंभीरविजया (१) गंभीरविचया—गम्भीर छिद्रों वाले या (२) गंभीर-विजया-गंभीर का अर्थ अप्रकाश और छिद्र का अर्थ विभाग है। जिनके विभाग अप्रकाशकर होते हैं। बुद्ध-वुत्तमहिट्ठगा—तीर्थंकरों के वचनों को मानने वाले। ४५. (क) गंभीरं अप्रकाशं, विजयः-आश्रयः अप्रकाशाश्रया एते । -हारि. वृत्ति, पत्र २०४ (ख) गंभीरं अप्पगासं विजयो-विभागो । गंभीरो विजयो जेसिं ते गंभीरविजया । -अ.चू., पृ. १५४ (ग) धम्मकहा-रायकुलादिसु पडिलेहिऊण निसीयणादीणि कुव्वंति । -जिनदासचूर्णि, पृ. २९९ (घ) पडिलेहणा-पमत्तो-विराहओ होई । -उत्तरा. अ. २७/३० (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३६९ (ख) निसिज्जा नाम एगे कप्पो, अणेगा वा कप्पा । -जिनदासचूर्णि, पृ. २२९ (ग) पीढगं—पलालपीठगादि । -जिनद्रासचूर्णि, पृ. २२९ पीठके वेत्रमयादौ । -हारि. वृत्ति, पृ. २०४ (घ) गंभीरं अप्पगासं भण्णइ, विजओ नाम मग्गणंति वा, पिथुकरणंति वा, विवेयणंति वा विजओ त्ति वा एगट्ठा । -जिनदासचूर्णि, पृ. २२९ गंभीरं-अप्रकाशं विजयं आश्रयः अप्रकाशाश्रया एते । -हारि. वृत्ति, पत्र २०४ (ङ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३६८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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