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________________ २३८ - ३१५. पच्छाकम्मं पुरेकम्मं सिया तत्थ न कप्पई । एयमट्ठे न भुंजंति निग्गंथा गिहिभायणे ॥ ५२॥ दशवैकालिकसूत्र [३१३] (गृहस्थ के) कांसे के कटोरे (या प्याले में, कांसे में बर्तन ( या थाली) में अथवा कुंडे के आकार वाले कांसे के बर्तन में जो साधु अशन, पान आदि खाता-पीता है, वह श्रमणाचार से परिभ्रष्ट हो जाता है ॥ ५० ॥ [३१४] (गृहस्थ के द्वारा) उन बर्तनों को सचित्त (शीत) जल से धोने में और बर्तनों के धोए हुए पानी को डालने में जो प्राणी निहत ( हताहत) होते हैं, उसमें (तीर्थंकरों ने) असंयम देखा है ॥ ५१ ॥ [३१५] (गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से ) कदाचित् पश्चात्कर्म और पुर:कर्म (दोष) संभव है। (इस कारण वह निर्ग्रन्थ के लिए) कल्पनीय नहीं है। इसी कारण वे गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करते ॥ ५२ ॥ विवेचन — गृहस्थ के पात्र में भोजन कल्पनीय क्यों नहीं ? – गृहस्थ के कांसे आदि धातुओं के बर्तन में साधु को भोजन करना या पेयपदार्थ पीना इसलिए कल्पनीय नहीं है कि गृहस्थ साधु-साध्वी को अपना बर्तन देने से पहले या लौटाने के पश्चात् उसे सचित जल से धो सकता है और फिर बर्तन का वह धोया हुआ पानी जहां-तहां विवेक में डाल देगा। वहां उससे त्रसजीवों की उत्पत्ति और विराधना हो सकती है। ऐसा करने से पश्चात्कर्म और पुरः कर्म नामक एषणादोष लगना सम्भव है। अतएव गृहस्थ के बर्तन में आहार- पानी करने से श्रमणों को आचार से - पतित और भ्रष्ट बताया है । ४३ 'कंसेसु' आदि पदों का अर्थ — कंसेसु अनेक अर्थ - (१) काँसे का बना हुआ बर्तन (कांस्य), (२) क्रीड़ा-पान का बर्तन (कंस), (३) थाल, खोरक (गोलाकार बर्तन), (४) कटोरा, गगरी जैसा बर्तन । कंसपाएसु दो अर्थ- (१) कांसे के बर्तनों में या कांसे की थालियों में। कुंडमोएसु— कुण्डमोदेषु—– तीन अर्थ – (१) कच्छ आदि देशों में प्रचलित कुंडे की आकृति जैसा कांस्यपात्र । (२) हाथी के पैर जैसी आकृति वाला बर्तन । (३) हाथी के पैर के आकार का मिट्टी आदि का भाजन - कुण्डमोद है। सीओदगं शीतोदक—– सचित्त - जल । छण्णंति-क्ष्णंति हिंसा करता है। क्ष्णु धातु हिंसा करने के अर्थ में है । " पन्द्रहवां आचार स्थान : पर्यंक आदि पर सोने-बैठने का निषेध ३१६. आसंदी - पलियंकेसु मंचमासालएसु वा । अणायरियमज्जाणं आसइत्तु सइत्तु वा ॥ ५३॥ ३१७. नासंदीपलियंकेसु, न निसिज्जा न पीढए । निग्गंथाऽपडिहा बुद्धवुत्तमहिट्ठगा ॥ ५४॥ ४४. ४३. दशवैकालिकसूत्रम् (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३६५-३६६ (क) कंसेसु कंसस्स विकारो कांसं तेसु वट्टगातिसु लीलापाणेसु । (ख) कुण्डमोदेषु हस्तिपादाकारेषु मृण्मयादिषु । (ग) कुंडमोयं कच्छातिसु कुंडसंथियं कंसभायणमेव महंतं । (घ) 'सीतग्गहणेण सचेयणस्स उदगस्स गहणं कयं ।' (ङ) छन्नंति—क्ष्णु हिंसायामिति हिंसज्जंति । अ. चू., पृ. १५३ — हारि. वृत्ति, पत्र २०३ —अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५३ —जिनदासचूर्णि, पृ. २२८ —अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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