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________________ २४२ दशवकालिकसूत्र ३२५. तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा । जावजीवं वयं घोरं असिणाणमहिट्ठगा ॥ ६२॥ [३२३] रोगी हो या नीरोग, जो साधु (या साध्वी) स्नान करने की इच्छा करता है, उसके आचार का अतिक्रमण (उल्लंघन) हो जाता है, उसका संयम भी त्यक्त (शून्यरूप) हो जाता है ॥६०॥ [३२४] यह तो प्रत्यक्ष है कि पोली भूमि में और भूमि की दरारों में सूक्ष्म प्राणी होते हैं। प्रासुक जल से भी स्नान करता हुआ भिक्षु उन्हें (जल से) प्लावित कर (-बहा) देता है ॥६१॥ _ [३२५] इसलिए वे (संयपी साधु-साध्वी) शीतल या उष्ण जल से स्नान नहीं करते। वे जीवनभर घोर अस्नानव्रत पर दृढ़ता से टिके रहते हैं ॥६२॥ विवेचन स्नाननिषेध का हेतु?—प्रस्तुत तीन गाथाओं (३२३ से ३२५ तक) में ब्रह्मचारी एवं संयमी साधु या साध्वी के स्नान करने में निम्नोक्त दोषों की सम्भावना बतलाई गई है—(१) आचार का उल्लंघन (साधु का यावज्जीवन आचार (नियम) है—अस्नान का, वह भंग होता है), (२) प्राणीरक्षणरूप संयम की विराधना, क्योंकि स्नान करता है तो पानी के बहने से अनेक सूक्ष्म त्रस प्राणियों की हिंसा होने की सम्भावना है। (३) पोली और दरार वाली भूमि में स्नान का बहता हुआ पानी घुस जाने से वहां पर रहे हुए अनेक सूक्ष्म जीवों की विराधना होती है। (४) प्रासुक या उष्ण जल से स्नान करने में भी यही पूर्वोक्त दोष है। 'वोक्कतो' आदि कठिन शब्दों के अर्थ वोक्कतो व्युत्क्रान्त–उल्लंघित होता है। आयारोआचार : दो अर्थ (१) कायक्लेशरूप बाह्यतप, अथवा अस्नानरूप मौलिक आचार (नियम)। जढो त्यक्तप्राणिरक्षारूप संयम को छोड़ दिया जाता है। घसासु-दो अर्थ (१) शुषिर-पोली भूमि, (२) पुराने भूसे की राशि का वह प्रदेश, जिसके एक छोर को छूते या जिस पर रखते ही सारा प्रदेश हिल जाए। भिलुगासु यह देशी शब्द है। अर्थात् राजियों लम्बी-लम्बी दरारों से युक्त भूमि। वियडेण विकटेन विकृतेन–प्रासुक जल या धोवन पानी से। उप्पिलावए (१) उत्प्लावयति—उत्प्लावन करता है, डुबो देता है, यह बहा देता है। अथवा उत्पीडयतिबहुत पीड़ित कर देता है। सीएण उसिणेण व ठंडे स्पर्श सुखकारी प्रासुक जल से अथवा उष्ण (गर्म) जल से। असिणाणमहिदगा अस्नान के नियम पर स्थिर रहने वाले। श्रृंगार एवं विभूषादि की दृष्टि से भी संयमी पुरुषों के लिए स्नान का निषेध किया गया है, यह बात अठाहरवें आचारस्थान की गाथाओं से स्पष्ट है। ४९. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३७५ ५०. (क) आचारो—बाह्यतपोरूपः, संयम —प्राणिरक्षाणादिकः । —जढः—परित्यक्तो भवति । प्रासुकस्नानेन कथं संयमपरित्यागः? इत्याह-संतिमे सुहमा० । -हारि. वृत्ति, पत्र २०५ - (ख) घसासु-शुषिरभूमिसु, भिलुगासु च तथाविधभूमिराजीषु च । विकृतेन—प्रासुकोदकेन । -हारि. वृत्ति, पत्र २०६ (ग) गसति—सुहुमसरीरजीवविसेसा इति घसि । अंतो सुण्णो भूमिपदेसो पुराणभूसातिरासी वा । –अ. चू., पृ. १५६ (घ) घसा नाम जत्थेकदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सव्वो चलई, सा घसा भण्णइ । —जिनदासचूर्णि, पृ. २३१ ५१. (क) वियर्ड पाणयं भवइ। "....जइ उप्पीलावणादि दोसा न भवंति तहावि अन्ने ण्हायमाणस्स दोसा भवंति, कहं ?
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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