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________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा २३५ प्रस्तुत में तेजस्का एवं वायुकाय की हिंसा के त्याग के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला गया है—अग्नि अन्य शस्त्रों से अधिक तीक्ष्ण शस्त्र है, सर्वतः दुराश्रय, सर्व दिशाओं - विदिशाओं में संहारक हो जाती है वहां रहे हुए सभी को भस्म करती है। यह प्रचुर प्राणियों के लिए विघातक है। अतः संयमी साधुवर्ग ताप और प्रकाश दोनों के लिए अग्नि का जरा भी प्रयोग न करे। वायुकाय का समारम्भ भी अग्निकायसदृश घोर विघातक है, सावद्यबहुल है, त्रायी साधुवर्ग के द्वारा अनासेवित है । अतः ताड़पत्र के पंखे, पत्ते, शाखा अथवा अन्य किस्म के पंखे आदि से तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण से हवा नहीं करनी चाहिए । यतनापूर्वक वस्त्रादि उपकरणों को रखना- उठाना या धारण करना चाहिए । ३७ 'जाततेयं' आदि शब्दों की व्याख्या : जाततेयं जाततेज— जो उत्पत्तिकाल से ही तेजस्वी हो । सूर्य उदयकाल में मृदु और मध्याह्न में तीव्र होता है, अत: वह जाततेज नहीं है। स्वर्ण जाततेज नहीं है, परिकर्म से तेजस्वी बनता है, अग्नि परिकर्म के बिना उत्पत्ति के साथ ही तेजस्वी होती है, अतः इसे 'जाततेज' कहा गया है। पावक भी अग्नि का पर्यायवाची नाम है, जाततेज उसका विशेषण है । ८ तिक्खमन्नयरं सत्थं अग्नि तीक्ष्णतम शस्त्र है। कई शस्त्र एक धार वाले, कई दो धार, तीन धार, चार धार अथवा पांच धार वाले होते हैं, किन्तु अग्नि सर्वतोधार — सब ओर से धार वाला शस्त्र है। अजानुफल पांच धारवाले शस्त्र होते हैं, सभी शस्त्रों में अग्नि जैसा तीक्ष्णतर कोई शस्त्र नहीं है। अन्यतर का अर्थ है— प्रधान शस्त्र । सबसे तीक्ष्ण या सर्वतोधार अथवा तीक्ष्णशस्त्रों में प्रधान शस्त्र । अग्नि सर्वतोधार है, इसलिए इसे 'सर्वतोदुराश्रय' कहा गया है। अर्थात् —–— इसे अपने आश्रित करना कठिन है। हव्ववाहो — हव्यवाह— देवतृप्ति के लिए होम किए जाने वाले घृत आदि हव्य द्रव्यों का जो वहन करे वह हव्यवाह है, यह अग्नि का पर्यायवाची शब्द है। आघाओ आघात - प्राणियों के आघात (विनाश) का हेतु होने से इसे आघात कहा गया है। सावज्जबहुलं — प्रचुर पापयुक्त। सावद्य शब्द का अर्थ है— अवद्य - पाप सहित । उईरंति—उदीरयन्ति — प्रेरित करते हैं— प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न करते हैं । ३९ ३७. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त), पृ. ४२ ३८. (क) जात एव जम्मकाल एव तेजस्वी, ण तहा आदिच्चो, उदये सोमो मज्झे तिव्वो । - अ. चू., पृ.. १५० (ख) जायते तेजमुप्पत्तीसमकमेव जस्स सो जायतेयो भवति । जहा सुवण्णादीणं परिक्कमणाविसेसेण तेयाभिसम्बन्धो भवति, ण तहा जायतेयस्स । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२४ (क) सासिज्जइ जेण तं सत्थं, किंचि एगधारं, दुधारं, तिधारं, चउधारं, पंचधारं सव्वतो धारं नत्थि, मोत्तुमगणिमेगं । तत्थ गधा, परसु, दुधारं कणयो, तिधारं असि, चठधारं तिपडतो कणीयो, पंचधारं अजानुफलं, सव्वओ धारं अग्गी । एहिं एगधार - दुधार-तिधार- चउधार- पंचधारेहिं सत्थेहिं अण्णं नत्थि सत्थं, अगणिसत्थाओ तिक्खतरमिति । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२४ ३९. (ख) 'तीक्ष्णं-छेदकरणात्मकम्', 'अन्यतरत् शस्त्रं'- सर्वशस्त्रम् । सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति भावः । (ग) अण्णतराओत्ति पधाणाओ । (घ) सव्वओवि दुरासयं नाम एतं सत्थं सव्वतोधारत्तणेण दुक्खमाश्रयत इति दुराश्रयं । (ङ) अणुदिसाओ — अंतरदिसाओ । (च) वहतीति वाहो, हव्वं नाम जं हूयते घयादि तं हव्वं भण्णइ । हारि. वृत्ति, पत्र २०१ — अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५० — जिनदासचूर्णि, पृ. २२४ — अगस्त्यचूर्णि, पृ. १५० —जिनदासचूर्णि, पृ. २२५
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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