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________________ २३४ हैं।) ॥ ३७॥ [३०१] जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण हैं, उनके द्वारा (भी) वे वायु की उदीरणा नहीं करते, किन्तु यतनापूर्वक वस्त्र - पात्रादि उपकरण को धारण करते हैं ॥ ३८ ॥ [३०२] (वायुकाय सावद्य - बहुल है) इसलिए इस दुर्गतिवर्द्धक दोष को जान कर (साधुवर्ग) जीवनपर्यन्त वायुकाय-समारम्भ का त्याग करे ॥ ३९ ॥ दशवैकालिकसूत्र [३०३] सुसमाहित संयमी (साधु-साध्वी) मन, वचन और काय — इस त्रिविध योग से तथा कृत, कारित और अनुमोदन — इस त्रिविध करण से वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते ॥ ४० ॥ • [३०४] वनस्पतिकाय की हिंसा करता हुआ (साधु) उसके आश्रित विविध चाक्षुष (दृश्यमान) और अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है ॥ ४१ ॥ [ ३०५] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवन भर वनस्पतिकाय के समारम्भ का त्याग करे ॥ ४२ ॥ [ ३०६] सुसमाधियुक्त संयमी (साधु-साध्वी) मन, वचन, काया — इस त्रिविध योग तथा कृत, कारित और अनुमोदन — इस त्रिविध करण से त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करते ॥ ४३ ॥ [३०७] त्रसकाय की हिंसा करता हुआ (साधु) उसके आश्रित रहे हुए अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्यमान) और अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है ॥ ४४ ॥ [३०८] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवनपर्यन्त त्रसकाय के समारम्भ का त्याग करे ॥ ४५ ॥ विवेचन – षट्कायिक जीवों की हिंसा का त्याग — प्रस्तुत २० सूत्रगाथाओं ( २८९ से ३०८ तक) में क्रमशः पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकायों की हिंसा का त्याग साधुवर्ग को क्यों और किस प्रकार से करना चाहिए, इसका प्रतिपादन किया गया है। पृथ्वीकायादि की हिंसा का त्याग क्यों करना चाहिए, इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं—इन षड्जीवनिकायों की हिंसा करते समय व्यक्ति उस-उस काय के अतिरिक्त उसके आश्रित कई प्रकार के त्रस एवं स्थावर, आँखों से दीखने वाले और न दीखने वाले जीवों का भी संहार करता है। इन षट्कायिक जीवों की हिंसा से दुर्गति (नरक या तिर्यञ्च गति) तो मिलती ही है, किन्तु उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, अर्थात् से जन्ममरण की परम्परा बढ़ती जाती है। यह दोष अतीव भयंकर और आत्मगुणों का विघातक है, यह जानकर इनकी हिंसा का त्याग करना अनिवार्य है । २६ तियों इनकी हिंसा का त्याग किस प्रकार से ? – (१) सामान्यतया षट्कायिक जीवों की हिंसा के त्याग की विधि इस प्रकार बताई गई है— तीन करण और तीन योग से पृथ्वीकायादि छह जीवनिकायों की हिंसा एवं समारंभ का त्याग जीवन भर के लिए करे । (२) विशेष रूप से प्रत्येक जीवनिकाय के जीवों की हिंसा के त्याग की विधि पृथक्-पृथक् भी बताई गई है। वैसे तो 'षड्जीवनिकाय ' नामक चतुर्थ अध्ययन में प्रत्येक जीवनिकाय से सम्बन्धित प्रकार और उसकी हिंसा के विविध प्रकारों का उल्लेख किया गया है, इसलिए यहां उसकी विशेष चर्चा नहीं की गई ३६. (क) दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त), पृ. ४१-४२-४३ (ख) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज)
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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