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________________ २२७ छठा अध्ययन : महाचारकथा आदि धर्मोपकरण) रखते हैं, उन्हें भी वे संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते हैं और उनका उपयोग करते हैं ॥ १९ ॥ [ २८३] समस्त जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र ( भगवान् महावीर) ने (साधुवर्ग द्वारा धर्मोपकरण के रूप में रखे एवं उपयोग किए जाने वाले ) इस (वस्त्रादि उपकरण समुदाय) को परिग्रह नहीं कहा है। 'मूर्च्छा परिग्रह है' — ऐसा महर्षि (गणधरदेव) ने कहा है ॥ २० ॥ [२८४] यथावद्वस्तुतत्त्वज्ञ (बुद्ध साधु-साध्वी) (वस्त्रपात्रादि) सर्व उपधि (सभी देश-काल में उचित उपकरण) का संरक्षण करने (रखने) और उन्हें ग्रहण (धारण) करने में ममत्वभाव का आचरण नहीं करते, इतना ही नहीं, वे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखते ॥ २१ ॥ विवेचन—संग्रह, परिग्रह और अपरिग्रह का स्पष्टीकरण — प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं ( २८० से २८४ तक) में संग्रह का निषेध, उपकरणादि वस्तु के अपरिग्रहत्व की तथा अपरिग्रहवृत्ति की चर्चा की गई है। सन्निहि आदि पदों का अर्थ सन्निधि और संचय लवण आदि जो द्रव्य चिरकाल तक रखे जा सकते हैं, उन्हें अविनाशी द्रव्य तथा दूध, दही आदि जो द्रव्य अल्पकाल तक ही टिके रह सकते हैं, उन्हें विनाशी द्रव्य कहते · हैं। यहां अविनाशी द्रव्यों के संग्रह को 'सन्निधि' कहा गया है। निशीथचूर्णि में अविनाशी द्रव्य के संग्रह को 'संचय' और विनाशी द्रव्य के संग्रह को 'सन्निधि' कहा गया है। जो भी हो, लवण आदि वस्तुओं का संग्रह करना, उन्हें अपने पास रखना अथवा रात को बासी रखना 'सन्निधि' है, जो कि ममत्वभाव से रखे जाने के कारण परिग्रह है । २५ विडं : लक्षण गोमूत्र आदि में पकाकर जो कृत्रिम नमक तैयार किया जाता है, वह प्रासुक नमक विडलवण कहलाता है। उब्भेइमं लोणं-उद्भिज लवण, जो खान में से निकलता है, अथवा समुद्र के खारे पानी से बनाया जाता है। यह प्राहै। फाणियं : फाणित इक्षुरस को पकाने के बाद जो गाढ़ा द्रव गुड़ (काकब) होता है, उसे फाणित कहते हैं । लोहस्सेस अणुफासो– यह सन्निधि या संचय लोभ का ही अनुस्पर्श है, चेप है। लोभ का चेप एक बार लगने पर फिर छूटता नहीं है। अथवा अनुस्पर्श का अर्थ — प्रभाव, सामर्थ्य या माहात्म्य भी होता है। लोभ के प्रभाव से परिग्रहवृत्ति और संग्रहप्रवृत्ति बढ़ती जाती है ।२६ (क) 'सन्निही णाम दधिखीरादि जं विणासि दव्वं, जं पुण घय-तेल्ल - वत्थ - पत्त - गुल- खंड - सक्कराइयं अविणासि दव्वं, चिरमवि अच्छा, ण विणस्सइ सो संचतो ।' — निशीथ. उ. ८, सू. १७ चूर्णि (ख) एताणि अविणासिदव्वाणि न कप्पंति, किमंग पुण रसादीणि विणासिदव्वाणि ? एवमादि सण्णिधिं न ते साधवो भगवंतो णायपुत्तस्स वयणे रया इच्छंति । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२० —हारि. वृत्ति, पत्र १९८ (ग) सन्निधिं कुर्वन्ति —–— पर्युषितं स्थापयन्ति । २६. (क) विलं (डं) गोमुत्तादीहिं पचिऊण कित्तिमं कीरइ, ... अहवा बिलग्गहणेण फासुगलोणस्स गहणं कयं । २५. (ख) उब्भेइमं सामुद्दोति लवणागरेसु वा समुप्पज्जति तं अफासुगं । (ग) फाणितं द्रवगुडः । —जिनदासचूर्णि, पृ. २२० — अगस्त्यचूर्णि, पृ. १४६ — हारि. वृत्ति, पत्र १९८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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