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________________ ၃၃ दशवैकालिकसूत्र साधुजन सेव्य नहीं है। (४) अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, अर्थात् —समस्त पापों का बीज है या प्रतिष्ठान है। ऐसा कोई पाप नहीं है, जो अब्रह्मचारी से न हो सके। अब्रह्मचारी को धर्म, संयम, तप आदि की कोई भी बात नहीं सुहाती। (५) महादोष-समुच्छ्रय इसलिए कहा गया है कि अब्रह्मचर्य से व्यक्ति असत्य, माया, झूठ-फरेब, छल, पाप को छिपाने की दुर्वृत्ति, चोरी, हत्या आदि अनेक महादोषों का पात्र बन जाता है।२३ पूर्ण ब्रह्मचर्य-पालन के दो ठोस उपाय प्रस्तुत दो गाथाओं में अब्रह्मचर्य से बचने के लिए दो ठोस उपाय बताए हैं, वे ही ब्रह्मचर्यसुरक्षा के उपाय हैं। पहला उपाय है—भेदायतनवर्जी अर्थात् जो-जो बातें ब्रह्मचर्य या संयम में विघातक हैं, जैसे कि स्त्री-पशु-नपुंसक-संसक्त स्थान में रहना आदि, उनको वर्जित करे, उनसे दूर रहे और उनसे विपरीत नौ बाड़ से ब्रह्मचर्य की सर्वविध रक्षा करे और दूसरा ठोस उपाय है-मैथुन-संसर्ग-वर्जन। स्मरण, कीर्तन, क्रीड़ा, प्रेक्षण, एकान्तभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रियानिष्पत्ति, इन आठ प्रकार के मैथुनांगों का वर्जन करे, अब्रह्मचर्यजनक समस्त संसर्गों से दूर रहे।" पंचम आचारस्थान : अपरिग्रह (सर्वपरिग्रहविरमण) २८०. विडमुब्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पिं च फाणियं । न ते सन्निहिमिच्छंति नायपुत्तवओरया ॥ १७॥ २८१. लोभस्सेसऽणुफासो मन्ने अन्नयरामवि । . जे सिया सन्निही-कामे गिही, पव्वइए न से ॥ १८॥ २८२. जं पि वत्यं व पायं वा कंबलं पायपुंछणं । ____ तं पि संजमलजट्ठा धारेंति परिहरेंति य ॥१९॥ २८३. न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो', इइ वुत्तं महेसिणा ॥ २०॥ २८४. सव्वत्थुवहिणा बुद्धा संरक्षण-परिग्गहे । अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं ॥ २१॥ [२८०] जो ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) के वचनों में रत हैं, (वे साधु-साध्वी) विडलवण, सामुद्रिक (उद्भिज) लवण, तैल, घृत, द्रव गुड़ आदि पदार्थों का संग्रह करना नहीं चाहते ॥ १७ ॥ [२८१] यह (संग्रह) लोभ का ही विघ्नकारी अनुस्पर्श (प्रभाव) है, ऐसा मैं मानता हूँ। जो साधु (या साध्वी) कदाचित् यत्किंचित् पदार्थ की सन्निधि (संग्रह) की कामना करता है, वह गृहस्थ है, प्रव्रजित नहीं है ॥१८॥ [२८२] (मोक्षसाधक साधु-साध्वी) जो भी (कल्पनीय) वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण (पादपोंछन २३. (क) दुरहिट्ठियं नाम दुगुञ्छं पावइ तमहिट्ठियंतो त्ति दुरहिट्ठियं । (ख) दूरहिट्ठियं दुगुंछियाधिट्ठितं । (ग) दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पृ. ३३० २४. दशवै. आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पृ. ३३१ —जिनदासचूर्णि, पृ. २१९ -अगस्त्यचूर्णि, पृ. १४६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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