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दशवैकालिकसूत्र सन्निधिकामी को प्रव्रजित मानने से इन्कार शास्त्रकार या तीर्थंकर मानते हैं ('मन्ने' शब्द से दोनों अर्थ निकलते हैं) कि सन्निधि करना तो दूर रहा, सन्निधि करने की इच्छा करने वाला भी परिग्रहदोष से युक्त होकर गृहस्थतुल्य बन जाता है। वस्तुतः प्रव्रजित नहीं रहता। व्यवहारसूत्र की टीका में दशवैकालिकसूत्र की एक गाथा उद्धृत की गई है। उसमें बताया गया है कि अशनादि चतुर्विध आहार की जो भिक्षु सन्निधि (संचय) करता है वह गृही है, प्रव्रजित नहीं। उस गाथा का अन्तिम चरण ही इस गाथा से मिलता है। प्रथम तीन चरण पृथक् हैं।
__ शंका-समाधान—प्रश्न होता है—लवणादि का तथा उपलक्षण से किसी भी वस्तु का संग्रह करने से अपरिग्रहव्रत भंग हो जाता है, तब साधु-साध्वी जो वस्त्र, पात्र, रजोहरण, पुस्तक आदि रखते हैं, उनका उपयोग करते हैं, क्या वे परिग्रही नहीं हैं ? क्या उनसे साधु का अपरिग्रहव्रत दूषित नहीं होता ? इसी का समाधान शास्त्रकार दो गाथाओं द्वारा करते हैं। तात्पर्य यह है कि साधुवर्ग के पास जो भी वस्त्र-पात्रादि उपकरण होते हैं, वे सब संयमपालन के लिए तथा लज्जानिवारण के लिए ही रखे जाते हैं। उन पर उनका ममत्व नहीं होता, यहां तक कि वे अपने शरीर पर भी ममत्वभाव नहीं रखते और भगवद्वचनानुसार ममता-मूर्छा न हो, वहां परिग्रहदोष नहीं होता, क्योंकि भगवान् ने मूर्छा को ही परिग्रह कहा है।
संजम-लजट्ठा : व्याख्या साधु-साध्वी जो भी कल्पनीय शास्त्रोक्त वस्त्रादि धर्मोपकरण रखते हैं, उसके दो प्रयोजन बताए हैं—संयम और लज्जा। वृत्तिकार ने संयम और लज्जा को अभिन्न (एक शब्द) माना है, तदनुसार एक ही प्रयोजन फलित होता है संयमरूप लज्जा की रक्षा के लिए।
वस्त्र का ग्रहण संयम के निमित्त किया जाता है। वस्त्र के अभाव में कोई साधु शीत से पीड़ित होकर अग्निसेवन न कर ले, इसलिए वस्त्र रखने का विधान है। पात्र के अभाव में संसक्त और परिशाटन दोष उत्पन्न होंगे, इसलिए पात्र रखने का विधान है। वर्षाकल्प आदि में अप्काय के जीवों की रक्षा के लिए कम्बल रखने का विधान है तथा लज्जानिवारणार्थ चोलपट्ट आदि वस्त्र रखने का विधान है, कटिपट के अभाव में महिला आदि के समक्ष विशिष्टश्रुत-परिणति आदि से रहित साधक में निर्लज्जता होनी संभव है।९
धारंति परिहरंति : विशेषार्थ प्रयोजन होने पर वस्त्रादि का उपयोग करने की दृष्टि से शास्त्रोक्त मर्यादानुसार रखना, धारण करना कहलाता है तथा वस्त्रादि का स्वयं परिभोग करना, परिहरण करना (पहनना) कहलाता है।
२६. (घ) अणुफासो नाम अणुभावो भण्णति ।
.-जिनदासचूर्णि, पृ. २२० (ङ) यः स्यात यः कदाचित् ।
-हारि. टीका, पत्र-१९८ २७. व्यवहारसूत्र, उ.५, गाथा ११४ २८. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ.७५ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ३३५ (क) संयमलज्जार्थमिति संयमार्थ पात्रादि, ...लजार्थं वस्त्रम् । तद्व्यतिरेकेण अंगनादौ विशिष्ट श्रुतपरिणत्यादिरहितस्य
निर्लज्जतोपपत्तेः । अथवा संयम एव लज्जा, तदर्थं सर्वमेतद् वस्त्रादि धारयन्ति । -हारि. वृत्ति, पत्र १९९ (ख) '...संजमनिमित्तं वा वत्थस्स गहणं कीरइ। मा तस्स अभावे अग्गिसेवणादिदोसा भविस्संति, पाताभावेऽवि संसत्तपरिसाडणादी दोसा भविस्संति, कंबलं वासकप्पादीतं उदगादि-रक्खणट्ठा घेप्पति । लजानिमित्तं चोलपट्टको घेप्पति।'
-जिनदासचूर्णि, पृ. २२१ ३०. 'तत्थ धारणा णाम संपयोअणत्थं धारिजइ, जहा उप्पणे पयोयणे एतं परिभुंजिस्सामि त्ति, एसा धारणा । परिहरणा नाम जा सयं वत्थादी परिभंजइ, सा परिहरणा भण्णइ ।'
—जिनदासचूर्णि, पृ. २२१