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________________ २१२ दशवकालिकसूत्र मैरेय : मेरक : विभिन्न परिभाषाएं (१) सुरा को पुनः सन्धान करने से निष्पन्न होने वाली सुरा, (२) धाई के फल, गुड़ तथा धान्याम्ल (कांजी) के सन्धान से तैयार की जाने वाली, (३) आसव और.सुरा को एक बर्तन में सन्धान करने से निष्पन्न मद्य, (४) कैथ की जड़, बेर और खांड का एकत्र सन्धान करके तैयार की मदिरा।३ (५) सिरका नामक मद्य है।* मद्यकरस-भांग, गांजा, अफीम, चरस आदि मदजनक या मादक रस-द्रव्य को मद्यकरस कहते हैं । जो-जो द्रव्य बुद्धि को लुप्त करते हैं, वे मदकारी मद्यक कहलाते हैं।" जसं सारक्खमप्पणो अपने यश अथवा अपने संयम की सुरक्षा करने के लिए। यहां यश शब्द का सभी टीकाकारों ने 'संयम' अर्थ किया है।३५ ससक्खं : दो रूप : तीन अर्थ (१) स्वसाक्ष्य आत्मसाक्षी से, (२) ससाक्ष्य सदा के लिए मद्यपरित्याग में साक्षीभूत केवली के द्वारा निषिद्ध, (३) ससाक्ष्य-गृहस्थों की साक्षी से न पीए ।२६ संवर : तीन अर्थों में (१) प्रत्याख्यान, (२) संयम और (३) चारित्र ।३७ मेधावी-बुद्धिमान् के दो प्रकार हैं—(१) ग्रन्थमेधावी बहुश्रुत, शास्त्र-पारंगत और (२) मर्यादा-मेधावीशास्त्रोक्त मर्यादाओं के अनुसार चलने वाला।८ मद्यप्रमाद : स्पष्टीकरण मद्य और प्रमाद ये दोनों भिन्नार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु भिन्नार्थक नहीं हैं। मद्य प्रमाद का हेतु है। इसलिए यहां मद्य को ही प्रमाद कहा गया है।३९ "नियडि' आदि शब्दों के विशेषार्थ नियडि-निकृति–एक कपट को छिपाने के लिए किया जाने वाला ३३. (क) 'मेरकं वापि प्रसन्नाख्याम् ।' -हारि. वृत्ति, पत्र १८८ (ख) 'मैरेयं धातकीपुष्प-गुड-धान्याम्ल-सन्धितम् ।' -चरक पू.भा. सूत्रस्थान अ. २५, पृ. २०३ (ग) 'आसवश्च सुरायाश्च द्वयोरेकत्र भाजने, संधानं तद्विजानीयान्मैरेयमुभयाश्रम्।' -वही, अ. २७, पृ..२४० (घ) मालूरमूलं बदरी शर्करा च तथैव हि। एषामेकत्र सन्धानात् मैरेयी मदिरा स्मृता। -वही, अ. २५, पृ. २०३ * मेरकं सरकानामधेयं मद्यम् । -दशा. अ. म. मं. टीका, पृ. ५३२ ३४. 'माधकं—मदजनकं रसम्, मादकत्वेन द्वादशविधमद्यस्य तदितरस्य विजयादेश्च सर्वस्य संग्रहः।' -दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. ५३२ ३५. 'यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते ।' -हारि. वृत्ति, पत्र १८८ ३६. (क) सक्खीभूतेण अप्पणा सचेतणेण इति । -अगस्त्यचूर्णि, पृ. १३४ (ख) ससक्खं नाम सागारिएहिं पडुप्पाइयमाणं। -जिन. चूर्णि, पृ. २०२ (ग) ससाक्षिकं सदापरित्यागसाक्षि-केवलि-प्रतिषिद्धं न पिबेत् भिक्षुः । अनेन आत्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः । -हारि. वृत्ति, पत्र १८८ ३७. (क) संवरं पच्चक्खाणं। —अ. चू., पृ. १३४ (ख) संवरो नाम संजमो । —जिन. चूर्णि, पृ. २०४ (ग) संवरं चारित्रम् । -हारि. वृत्ति, पृ. १८८ ३८. मेधावी दुविहो तं थमेधावी, मेरामेधावी य। तत्थ जो महंतं गंथं अहिज्जति, सो गंथमेधावी, मेरामेधावी णाम मेरा मज्जाया भण्णति, तीए मेराए धावति त्ति मेरामेधावी। -जिन. चूर्णि, पृ. २०३ ३९. छव्विहे पमाए प. तं०-मज्जपमाए....मद्यं-सुरादि, तदेव प्रमादकारणत्वात् प्रमादो मद्यप्रमादः । -स्थानांग ६-४४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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