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पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा
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[२५९] (किन्तु) जो (साधु होकर भी) तप का चोर है, वचन का चोर है, रूप का चोर है, आचार तथा भाव का चोर है, वह किल्विषिक देवत्व के योग्य कर्म करता है ॥ ४६ ॥
[२६०] देवत्व (देवभव) प्राप्त करके भी किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ वह वहां यह नही जानता कि यह मेरे किस कर्म (कृत्य) का फल है ? ॥ ४७ ॥
[२६१] वह (किल्विषिक देव) वहां से च्युत हो कर मनुष्यभव में एडमूकता ( बकरी या भेड़ की तरह गूंगापन) अथवा नरक या तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त करेगा जहां उसे बोधि की (प्राप्ति) अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ४८ ॥
[२६२] इस (पूर्वोक्त) दोष (समूह) को जान- देख कर ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने कहा कि मेधावी मुनि अणुमात्र (लेशमात्र) भी मायामृषा ( कपटसहित झूठ ) का सेवन न करे ॥ ४९ ॥
विवेचन मद्यपानजनित दोष और दुष्परिणाम — प्रस्तुत १४ सूत्रगाथाओं ( २४९ से २६२ तक) में साधु मद्यपान का दुर्गुण लग जाने पर किन-किन महादोषों से घिर जाता है और उनके क्या-क्या दुष्परिणाम भोगने पड़ते ? इसका विशद निरूपण है। तथा ४ गाथाओं में इस महादुर्गुण तथा महादोषों से बच कर चलने वाले शुद्धाचारी साधु के प्रशंसनीय जीवन का निरूपण भी है। यह पान - परिभोगैषणा से सम्बन्धित दोष है।
मद्यपानजनित महादोष मद्यपायी साधु के जीवन में निम्नोक्त दोष घर कर जाते हैं- (१) अकेला और एकान्त में छिप कर पीने से मायाचार, (२) चोरी, (भगवदाज्ञालोपनरूप चौर्य), (३) पानासक्ति में वृद्धि, (४) मायामृषा-वृद्धि, (५) अपकीर्ति, (६) अतृप्ति, (७) असाधुता का दौर, (८) चोर की तरह मन में सदैव उद्विग्नता, (९) मरणान्तकाल तक भी संवर की आराधना का अभाव, (१०) आचार्य एवं श्रमणों की अनाराधना —— अप्रसन्नता, (११) गृहस्थों के द्वारा निन्दा, घृणा । (१२) दुर्गुणप्रेक्षण, (१३) ज्ञानादिगुणों का ह्रास एवं (१४) अन्त में तप, वचन, रूप, आचार और भाव का स्तैन्य (चौर्य) । ३१
सुरा, मेरक और मद्यकरस : स्वरूप और प्रकार — सुरा और मेरक ये दोनों मदिरा के ही प्रकार हैं। भावमिश्र के अनुसार उबाले हुए शालि, षष्टिक (साठी) आदि चावलों को संधित करके तैयार की हुई मदिरा 'सुरा' कही जाती है। किन्तु अन्य आचार्यों ने मदिरा की तीन किस्में बताई हैं—– गौड़ी, माध्वी और पैष्टी। गुड़ से निष्पन्न गौड़ी, महुआ से निष्पन्न माध्वी और धान्य आदि के पिष्ट (आटे) से बनाई हुई पैष्टी कहलाती हैं। एक आचार्य ने मद्य के १२ प्रकार बताए हैं— (१) महुआ का, (२) पानस (अनन्नास) का, (३) द्राक्षा का, (४) ताड़ का (ताड़ी), (६) गन्ने का, (७) मैरेय —— धावड़ी के फूल का, (८) मधुमक्खियों का ( माक्षिक), (९) कविट्ठ—– कैथ का ( टांक), (१०) मधु अन्य प्रकार के शहद का, (११) नारियल का और (१२) आटे का (पैष्ट) 1३२
३१. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पण), पृ. ३६-३७
३२.
(क) 'शालि - षष्ठिक - पिष्टादिकृतं मद्यं सुरा स्मृता ।'
- चरक पूर्व भा. (सूत्रस्थान) अ. २५, पृ. २०३ (ख) मदिरा त्रिविधा — माध्वी (मधुकेन निष्पादिता), गौडी ( — गुडनिष्पादिता), पैष्टी (ब्रीह्यादिपिष्टनिर्वृतेति ) । द्वादशविधमद्यानि, यथा
माध्वीकं पानसं द्राक्षं, खार्जूरं नारिकेलजम् । मैरेयं माक्षिकं टांकं, माधूकं तालमैक्षवम् । मुख्यमन्नविकारोत्थं, मद्यानि द्वादशैव च ॥
— दशवै. ( आचारमणिमंजूषा), टीका, भाग १, पृ. ५३१-५३२