SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० २५९. तवतेणे वइतेणे रूवतेणे य जे नरे । आयार-भावतेणे य कुव्वई देवकिव्विसं ॥ ४६॥ २६०. लद्धूण वि देवत्तं, उववन्नो देवकिव्विसे । तत्थावि से न याणाइ किं मे किच्चा इमं फलं ॥ ४७ ॥ २६१. तत्तो वि से चइत्ताणं लब्धिही एलमूयगं । नरयं तिरिक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ ४८ ॥ २६२. एयं च दोसं दट्ठूणं नायपुत्त्रेण भासियं । अणुमायं पि मेहावी मायामोसं विवज्जए ॥ ४९ ॥ दशवैकालिकसूत्र [२४९] अपने संयम (यश) की सुरक्षा करता हुआ भिक्षु सुरा (मदिरा), मेरक या अन्य किसी भी प्रकार का मादक रस आत्मसाक्षी से (या केवली भगवान् की साक्षी से) न पीए ॥ ३६ ॥ [२५०] 'मुझे कोई नहीं जानता- देखता', यों विचार कर एकान्त में अकेला (मद्य) पीता है, वह (भगवान् की आज्ञा का लोपक होने से ) चोर है। उसके दोषों को (तुम स्वयं) देखो, और मायाचार ( कपटवृत्ति) को मुझ से सुनो ॥ ३७॥ [२५१] उस (मद्यपायी) भिक्षु की (मदिरापानसम्बन्धी) आसक्ति, माया - मृषा, अपयश, अनिर्वाण (अतृप्ति) और सतत असाधुता बढ़ जाती है ॥ ३८ ॥ [२५२] जैसे चोर सदा उद्विग्न ( घबराया हुआ ) रहता है, वैसे ही वह दुर्मति साधु अपने दुष्कर्मों से सदा उद्विग्न रहता है। ऐसा मद्यपायी मुनि मरणान्त समय में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता ॥ ३९ ॥ [२५३] न तो वह आचार्य की आराधना कर पाता है और न श्रमणों की । गृहस्थ भी उसे वैसा (मद्य पीने वाला दुश्चरित्र) जानते हैं, इसलिए उसकी निन्दा (गर्हा) करते हैं ॥ ४० ॥ [२५४] इस प्रकार अगुणों (मद्यपानजनित अनेक दुर्गुणों) को ही (अहर्निश) प्रेक्षण ( ध्यान या धारण) करने वाला और गुणों (ज्ञान - दर्शन - चारित्रादि गुणों) का त्याग करने वाला उस प्रकार का सांधु मरणान्तकाल में भी संवर ( चारित्र) की आराधना नहीं कर पाता ॥ ४१ ॥ [२५५-२५६] (इसके विपरीत) जो मेधावी और तपस्वी साधु तपश्चरण करता है, प्रणीत (स्निग्ध) रस से युक्त पदार्थों का त्याग करता है, जो मद्य (मादक द्रव्यों) और प्रमाद से विरत है, अहंकारातीत है अथवा अत्यन्त उत्कृष्ट साधु है, उसके अनेक साधुओं द्वारा पूजित (प्रशंसित या वन्दित) विपुल एवं अर्थसंयुक्त कल्याण को स्वयं देखो और मैं उसके (गुणों का) कीर्तन (गुणानुवाद) करूंगा, उसे मुझ से सुनो ॥ ४२-४३॥ [२५७] इस प्रकार (ज्ञानादि) गुणों की प्रेक्षा करने वाला और अगुणों (प्रमादादि दोषों) का त्यागी शुद्धाचारी साधु मरणान्त काल में भी संवर की आराधना करता है ॥ ४४ ॥ [२५८] (वह संवराराधक साधु) आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे उस प्रकार का शुद्धाचारी जानते हैं, इसलिए उसकी पूजा ( सन्मान - सत्कार - प्रशंसा) करते हैं ॥ ४५ ॥ पाठान्तर— लब्भइ ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy