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________________ पंचम अध्ययन पिण्डैषणा २०१ [२३३] जिसके बीज न पके हों, ऐसी नई (ताजी) अथवा एक बार भुनी हुई (मूंग आदि की) कच्ची फली देती हुई (दात्री महिला) को साधु निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता ॥२०॥ [२३४] इसी प्रकार बिना उबाला हुआ बेर, वंश-करीर (बांस का अंकुर या केर), काश्यपनालिका (श्रीपर्णी का फल) तथा अपक्व तिलपपड़ी और कदम्ब का फल (नीप) नहीं लेना चाहिए ॥ २१ ॥ [२३५] इसी प्रकार चावलों का पिष्ट (आटा) और विकृत (शुद्धोदक धोवन) तथा निर्वृत (जो गर्म जल ठंडा होकर सचित्त हो गया हो ऐसा) जल (अथवा मिश्र जल), तिलपिष्ट (तिलकूट), पोइ-साग और सरसों की खली, ये सब कच्चे (अपक्व) न ले ॥ २२॥ [२३६] अपक्व (कच्चे) और शस्त्र से अपरिणत कपित्थ (कैथ), बिजौरा, मूला और मूले के कन्द के टुकड़े को (ग्रहण करने की) मन से भी इच्छा न करे ॥ २३॥ [२३७] इसी प्रकार (बेर आदि) फलों का चूर्ण, (जौ आदि) बीजों का चूर्ण, विभीतक (बहेड़ा) तथा . प्रियालफल, इन्हें अपक्व जान कर छोड़ दे (न ले) ॥ २४॥ विवेचन अपक्व-अशस्त्रपरिणत भक्तपान लेने का निषेध–प्रस्तुत ११ सूत्रगाथाओं (२२७ से २३७ तक) में शास्त्रकार ने कतिपय ऐसी खाद्य पेय वस्तुओं के नाम गिनाए हैं, जिनके छेदन-भेदन करने पर या कूटनेपीटने पर या एक बार गर्म किये जाने पर अचित्त (निर्जीव) हो जाने की भ्रान्ति में साधु-साध्वी ग्रहण कर सकते हैं, अतः इन्हें पूरी तरह से अचित्त, पक्व व शस्त्रपरिणत न होने तक ग्रहण न करने के लिए साधु-साध्वियों को सावधान किया है। उप्पलं आदि शब्दों के अर्थ उप्पलं उत्पल नीलकमल। पउमं—पद्म रक्तकमल या अरविन्द। कुमुयं कुमुद–चन्द्रविकासी कमल। मगदंतियं : तीन अर्थ—(१) मालती, (२) मोगरा अथवा (३) मल्लिका (बेला)। सालुयं कमलकन्द अर्थात्-कमल की जड़। विरालियं : विदारिका : विभिन्न अर्थ हरिभद्रसूरि के अनुसार—पर्ववल्लि, प्रतिपर्ववल्लि या प्रतिपर्वकन्द। अगस्त्यचूर्णि के अनुसार-क्षीरविदारी, जीवन्ती और गोवल्ली। जिनदासचूर्णि के अनुसार बीज से नाल, नाल से पत्ते और और पत्ते से जो कन्द उत्पन्न होता है, वह पलाशकन्दी, विदारिका है। कुमुउप्पलनालियं कुमुदनालिका और उत्पलनालिका, अर्थात् क्रमशः चन्द्रविकासी कमल की नाल और नीलकमल की नाल। मुणालियं—पद्मनाल (मृणाल) अथवा जो पद्मिनीकन्द से निकलती है, हाथीदांत-सरीखी होती है, वह । उच्छुखंडं अनिव्वुडं—पर्वाक्ष या पर्वसहित इक्षुखण्ड अनिवृत अर्थात् —अपक्व । तात्पर्य तात्पर्य यह है कि पर्वसहित गन्ने के टुकड़ सचित्त होते हैं। यह सब वनस्पतिजन्य खाद्य केवल छेदन करने, मर्दन करने (मसलने या कुचलने) मात्र से या टुकड़े कर देने से अथवा वृक्ष से तोड़ लेने मात्र से अचित्त, पक्व या शस्त्रपरिणत नहीं हो जाते, इसलिए इन्हें लेने का निषेध किया है। १७. (क) उत्पलं नीलोत्पलादि। (ख) पउमं नलिणं । (ग) पद्मम् अरविन्दं वापि । कुमुदं वा गर्दभकं वा । (घ) मगदंतिकां-मेत्तिका, मल्लिकामित्यन्ये । (ङ) सालुयं-उप्पलकंदो । -जिन. चूर्णि, पृ. १९६ -अ. चू., पृ. १२८ -हारि. वृत्ति, पत्र १८५ -हारि. वृत्ति, पत्र १८५ -अ.चू., पृ. १२९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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