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दशवैकालिकसूत्र
रुक्खस्स तणगस्स वा : स्पष्टीकरण 'तणगस्स' को पृथक् पद मानने से 'तृण का' ऐसा अर्थ होता है, किन्तु तृण ( तिनके या घास) के कोई नये पत्ते नहीं आते, इसलिए 'तणगस्स' शब्द रुक्खस्स का विश्लेषण ही संगत प्रतीत होता है। अगस्त्यचूर्णि एवं हारिभद्रीया वृत्ति में इसका अर्थ- मधुर तृणादि किया है। मधुर तृणक 'मधुर' तृणद्रुम का पर्यायवाची प्रतीत होता है। तदनुसार नारियल, ताल, खजूर, केतक और छुहारे आदि मधुर फलों के वृक्ष मधुतृणद्रुम कहा जा सकता है। इसके नये पत्ते ( कोंपल) ग्रहण करने का निषेध है।८
तरुणअं वा पवालं-नया (ताजा) पत्ता या कोंपल, जिसे संस्कृत में 'प्रवाल' कहते हैं।
आमियं तरुणियं सई भज्जियं छिवाडिं: सचित्त अचित्त का स्पष्टीकरण— छिवाडि का अर्थ मूंग आदि की फली या सींगा है। ताजी कच्ची (मूंग, मोठ, चौला आदि की) एक बार भुनी हुई फली एक बार के अग्निसंस्कार से पूर्णतया पक्व नहीं होती, कुछ कच्ची — कुछ पक्की मिश्रित रहती है। इसलिए ऐसी अपक्व फली को लेने का निषेध है, किन्तु वे हरी फलियां दो-तीन बार भुनी हुई हों, तो लेने का निषेध नहीं है । १९
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कोलमस्सिन्नं० आदि पदों के अर्थ का स्पष्टीकरण – कोलमणुस्सिन्नं— जो उबाला हुआ न हो, वह बेर का फल | वेलुवंशकरिल्ल —— बांस का अंकुर । बेलुयं का 'बिल्व' अर्थ संगत नहीं, क्योंकि वेलुयं का संस्कृत रूपान्तर 'वेणकं' तो हो सकता है, बिल्वं नहीं। बिल्व का प्राकृत में 'बिल्लं' रूप होता है, जिसका प्रथम उद्देशक में उल्लेख हो चुका है। कासव-नालियं : दो अर्थ —- (१) काश्यपनालिका —–— अर्थात् श्रीपर्णी फल या कसारु (जलीय कन्द) जो घास का कन्द है, जिसका फल पीले रंग का और गोल होता है। तिलपप्पडिगं तिलपर्पटक, वह तिलपपड़ी जो कच्चे तिलों से बनी हो। नीमं : नीप कदम्बफल । नीमं का अर्थ भ्रान्तिवश नीम का फल (निम्बोली ) करना उचित नहीं, क्योंकि संस्कृत में निम्ब शब्द नीम के लिए प्रयुक्त होता है । २०
१७. (च) विरालियं पलासकंदो अहवा छीरविराली, जीवन्ती गोवल्ली इति एसा । (छ) विरालिकां पलाशकन्दरूपां पर्ववल्लि प्रतिपर्ववल्लि प्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये । (ज) विरालियं नाम पलासकंदो भण्णइ जहा बीए बस्सी जायंति, तीसे पत्ते, पत्ते कंदा
(झ) मृणालं पद्मनालं च ।
(ञ) मुणालिया गयदंतसन्निभा पउमिणिकंदाओ निग्गच्छति ।
(ट) उच्छुखंडमवि पव्वेसु धरमाणेसु ता नेव अनवगतजीवं कप्पइ ।
(ठ) इक्षुखण्डम् अनिर्वृत्तं सचित्तम् ।
- अ. चू., पृ. १२९ — हारि. वृत्ति, पत्र १८५ जायंति, सा विरालिया ।
— जिन. चूर्णि, पृ. १९७ -शा. नि. भू., पृ. ५३८ - जिन. चूर्णि, पृ. १९७ -जिन. चूर्णि, पृ. १९७
— हारि. वृत्ति, पत्र १८५
१८. (क) तृणस्य वा मधुरतृणादेः ।
— हारि. वृत्ति, पत्र १८५ — जिन. चूर्णि, पृ. १९७
(ख) तणस्स जहा — अज्जगमूलादीणं ।
(ग) तरुणिया नाम कोमलिया । जिन. चूर्णि, पृ. १९७ (घ) तरुणां वा असंजाताम् । —हा. टी., प. १८५ १९. (क) नीमं— नीवफलं— कदम्बफलं ।
अ. चू., पृ. १३०
(ख) नीमं नीमरुक्खस्स फलं । —जिन. चूर्णि, पृ. १९८ (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २८१ २०. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २६८
(ख) कासवनालिअं सीवण्णीफलं कस्सारुकं ।
-अ. चू., पृ. १३०
(ग) तिलपप्पडगो— जो आमगेहिं तिलेहिं कीरइ, तमवि आमगं परिवज्जेज्जा ।
— जिन. चूर्णि, पृ. १९८