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________________ पंचम अध्ययन:पिण्डैषणा १९९ विराधना की सम्भावना है।१३ गृहस्थों का अतिपरिचय भी संयमी जीवन के लिए हानिकारक है। अर्गला आदि को पकड़ कर खड़े रहने में दोष–अर्गला आदि को पकड़ कर खड़ा रहने में दोष यह है कि कदाचित् वे मजबूती से बंधे हुए न हों तो अचानक टूट कर या खुल कर मुनि पर गिर सकते हैं या मुनि नीचे गिर सकता है। इससे संयमविराधना और आत्मविराधना ये दोनों दोष संभव हैं। कभी-कभी लोगों को असभ्यता भी मालूम होती है।" श्रमण-ब्राह्मणादि याचकों को हटा कर या लांघ कर गृहप्रवेश में दोष—यदि गृहस्थ के द्वार पर भिक्षाचर खड़े हों तो उन्हें हटा कर या लांघ कर जाने में मुख्यतया तीन दोष हैं—(१) गृहस्थ को या याचक को उक्त साधु के प्रति अप्रीति या द्वेषभावना हो सकती है, (२) कदाचित् भक्त गृहस्थ, साधु को देखकर उन याचकों को दान न दे, तो इससे साधु को अन्तराय लगने की संभावना है, (३) धर्मसंघ की लोगों में निन्दा हो सकती है।५ ___ अग्गलं आदि शब्दों के अर्थ —अग्गलं : दो अर्थ अर्गला—आगल या भोगल या सांकल। फलिहं : परिघ—घर को दृढ़ता से बन्द करने के लिए उसके पीछे दिया जाने वाला फलक।६ सचित्त, अनिवृत्त, आमक एवं अशस्त्रपरिणत के ग्रहण का निषेध २२७. उप्पलं पउमं वा वि कुमुयं वा मगदंतियं । अन्नं वा पुष्फ सच्चित्तं, तं च संलुंचिया दए । ॥ १४॥ २२८. तारिस भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ १५॥ २२९. उप्पलं पउमं वा वि कुमुयं वा मगदंतियं । ___ अन्नं वा पुप्फ सच्चित्तं, तं च सम्मद्दिया दए ॥ १६॥ २३०. तारिस भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ १७॥ १३. गोयरग्गगएण भिक्खुण णो णिसियव्वं कत्थइ-घरे वा देवकुले वा, सभाए वा पवाए वा एवेमादि । जहा य न निसिएज्जा, तहा सिओ वि धम्मकहा-वादकहा-विग्गहकहादि णो पबंधिज्जा नाम ण कहेजइ । णण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा । १४. . (क) इमे दोसा कयाति दुब्बद्धे पडेजा, पडतस्स य संजमविराहणा आयविराहणा वा होजत्ति । -जिन. चूर्णि, पृ. १९६ (ख) 'लाघव-विराधनादोषात् ।' —हारि. वृत्ति, पत्र १८४ १५. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ. ६४ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २६१-२६२-२६३ १६. (क) णगरद्दारकवाडोत्थंभणं फलिहं ।। -अ.चू., पृ. १२७ (ख) अर्गलं-कपाटपट्टद्वय-दृढसंयोजककाष्ठादिनिर्मितकीलविशेष शृंखलादि च । –दशवै. आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. ५०७ अधिकपाठ इस प्रकार चिह्न से अंकित गाथा के बाद दो गाथाएं अधिक मिलती हैं
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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