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________________ १८६ दशवकालिकसूत्र पश्चात् उपाश्रय या अपने स्थान में आकर ही आहार करना चाहिए, किन्तु यदि कोई मुनि दूसरे गांव में या महानगर के ही दूरवर्ती उपनगर या मोहल्ले में भिक्षा लेने गया हो, वहां अधिक विलम्ब होने के कारण बालक, वृद्ध या रुग्ण अथवा तपस्वी आदि किसी को किसी कारणवश अत्यन्त भूख या प्यास लगी हो तो वह उपाश्रय में आने से पूर्व ही आहार कर सकता है। यह भिक्षाप्राप्त आहार के परिभोग की आपवादिक विधि है। किन्तु इस प्रकार से आपवादिक रूप में आहार करने वाले साधु के लिए यहां विधि बताई गई है—वह पहले तो उस गांव में कोई साधु उपाश्रय में हो तो वहां जाकर आहार करे। ऐसा न हो तो कोई एकान्त कोठा (कमरा) अथवा दीवार के पास या कोने में कोई स्थान चुन ले, उसे अच्छी तरह देखभाल ले। अपने रजोहरण से साफ कर ले। आहार के लिए उपयुक्त स्थान वही माना गया है, जो ऊपर से छाया गया हो और चारों ओर से आवृत्त हो किन्तु प्रकाश वाला हो। 'कोट्टगं' आदि शब्दों के भावार्थ-कोष्ठकं—(१) प्रकोष्ठ कमरा, (२) शून्यगृह आदि। भित्तिमूल(१) मठ आदि की भित्ति का मूल, (२) दीवार का कोना, (३) भित्ति का एक देश, (४) भित्ति का पार्श्ववर्ती भाग, (५) भींत के निकट, (६) दो घरों का मध्यवर्ती भाग। पडिच्छन्नम्मि संवुडे-(१) जिनदासचूर्णि के अनुसार ये दोनों शब्द स्थान के विशेषण हैं, अर्थ है—ऊपर चादर, चंदोवा आदि से या तृण आदि से छाये हुए एवं संवृतचटाई आदि से चारों ओर से ढंके हुए या बन्द स्थान में, (२) प्रतिच्छन्न —ढंके हुए, उक्त कोष्ठक आदि में, संवृत— उपयोगयुक्त होकर। हत्थगं संपमजित्ता : तीन अर्थ (१) 'हस्तकं' शब्द द्वितीयान्त होने से हाथ को सम्यक् प्रकार से साफ करके। (२) हस्तक अर्थात् मुखवस्त्रिका या मुंहपत्ती। (३) गोच्छक या पूंजणी-(प्रमार्जनिका) से प्रमार्जन करके। स्थान की अनुज्ञा विधि—प्रस्तुत गाथा में 'अणुनवेत्तु' शब्द है—उसका अर्थ होता है—अनुज्ञा अनुमति लेकर।६ 'अट्ठियं' आदिशब्दों के विशेषार्थ अट्ठियं : तीन अर्थ (१) गुठली, (२) बीज, (३) हड्डी। कंटगं ८४. (क) जिनदास चूर्णि, पृ. १८७ (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. २२२ ८५. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २४९ (ख) दशवै. (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. २२४ (ग) भित्तिमूलं कुड्यैकदेशादि । -हारि. वृत्ति, पृ. १७८ (घ) 'दोण्हं घराणं अंतरं भित्तिमूलं ।' -अ. चू., १२० (ङ) प्रतिच्छन्ने उपरिप्रावरणान्विते, अन्यथा सम्पातिमसत्त्वसम्पातसम्भवात् । संवृते पार्श्वतः कटकुट्यादिना संकटद्वारे, अटव्यां कुडंगादिषु वा । --उत्त. वृत्ति, पत्र ६०-६१ (च) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. ४७८ (छ) 'प्रतिच्छन्ने, तत्र कोष्ठकादौ, संवृत्त उपयुक्तः सन् ।' -हारि. वृत्ति, पत्र १७८ (ज) 'हस्तकं सम्प्रमाप हाथ ने साफ करीने ।' -दशवै. (संतबालजी), पृ. ५७ (झ) 'हत्थगं मुहपोत्तिया भण्णइ ।' -जिनदासचूर्णि, पृ. १८७ (ब) पूंजणी से हस्तपादादि शरीर के अवयवों का प्रमार्जन करके । –आचार्य आत्मा. दशवै., पृ. १२३ ८६. जिनदासचूर्णि, पृ. १८७
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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