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________________ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा १८५ किन्तु एकान्त निरवद्य अचित्त स्थान में यतनापूर्वक तीन बार बोसिरे-बोसिरे कह कर परिष्ठापन कर दे और बाद में स्थान में आकर ईर्यापथिक की विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करना चाहिए। इसीलिए कहा गया है "परिठप्प पडिक्कमे।" तण्हं विणित्तए नालं–तृषा-निवारण करने में असमर्थ, प्यास बुझाने में अयोग्य ।३ . परिभोगैषणा-विधि भोजन करने की आपवादिक विधि १९५. सिया य गोयरग्गगओ इच्छेज्जा परिभोत्तुयं ।। *कोट्ठगं भित्तिमूलं वा पडिलेहित्ताण फासुयं ॥ ११३॥ १९६. अणुन्नवेत्तु+ मेहावी पडिच्छन्नम्मि संवुडे । हत्थगं संपमजित्ता तत्थ भुंजेज संजए ॥ ११४॥ १९७. तत्थ से भंजमाणस्स अट्ठियं कंटओ सिया । तण-कट्ठ-सक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं ॥ ११५॥ १९८. तं उक्खिवित्तु न णिक्खिवे, आसएण न छड्डए । हत्थेण तं गहेऊण एगंतमवक्कम्मे ॥ ११६॥ १९९. एगंतमवक्कमित्ता अचित्तं पढिलेहिया । जयं परिद्ववेज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कम्मे ॥ ११७॥ [१९५-१९६] गोचराग्र के लिए गया हुआ भिक्षु कदाचित् (ग्रहण किये हुए आहार का) परिभोग (सेवन) करना चाहे तो वह मेधावी मुनि प्रासुक कोष्ठक या भित्तिमूल (भीत के निकटवर्ती स्थान) का अवलोकन (प्रतिलेखन) कर, (उसके स्वामी या अधिकारी की) अनुज्ञा (अनुमति) लेकर किसी आच्छादित (अथवा छाये हुए) एवं चारों ओर से संवृत स्थल में अपने हाथ को भलीभांति साफ करके वहां भोजन करे ॥ ११३-११४॥ . [१९७-१९८] उस (पूर्वोक्त विशुद्ध) स्थान में भोजन करते हुए (मुनि के आहार में) गुठली (या बीज), कांटा, तिनका, लकड़ी का टुकड़ा, कंकड़ या अन्य कोई वैसी (न खाने के योग्य) वस्तु निकले तो उसे निकाल कर न फेंके, न ही मुंह से थूक कर गिराए, किन्तु (उसे) हाथ में लेकर एकान्त में चला जाए ॥ ११५-११६ ॥ ____[१९९] और एकान्त में जाकर अचित्त (निर्जीव) भूमि देख (प्रतिलेखन) कर यतनापूर्वक उसे परिष्ठापित कर दे। परिष्ठापन करने के बाद (अपने स्थान में आकर) प्रतिक्रमण करे ॥ ११७॥ विवेचन सामान्य विधि और आपवादिक विधि सामान्यतया साधु या साध्वी को भिक्षाचर्या करने के ८३: (क) अचित्तं नाम जं सत्थोवहयं अचित्तं । -जिन. चूर्णि, पृ. १८६ (ख) परिट्ठवेऊण उवस्सयमागंतूण ईरियावहियाए पडिक्कमेज्जा । -जिन. चूर्णि, पृ. १८६-१८७ पाठान्तर- परिभुत्तुउं । * कुट्टगं । पाठान्तर-+ अणुन्नवित्तु । पा ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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