SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ दशवैकालिकसूत्र ___आचारांग में वर्णित धोवन -आम, अंबाडग, कपित्थ (कैथ), बिजौरे आदि का वर्णादि से परिणत धोवन लेने का आचारांग में तथा मूलाचार में विधान है। ___ 'उच्चावयं' आदि कठिन शब्दों के अर्थ उच्चावयं : उच्चावच : शब्दशः अर्थ है ऊंच और नीच। जलप्रकरण के सन्दर्भ में इनका अर्थ होगा—अच्छा (श्रेष्ठ) और बुरा (निकृष्ट)। अर्थात् —जिसके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श अच्छे (सुन्दर) हों, वह उच्च और जिसके वर्णादि श्रेष्ठ न हों, वह अवचपान कहलाता है। जैसे—द्राक्षा का धोवन उच्च जल है, जो अत्यन्त खट्टा, दुर्गन्धयुक्त, अति स्निग्धतायुक्त तथा वर्ण से भी असुन्दर हो, वह अवच है, जो साधु के लिए अग्राह्य है। उच्चावच का अर्थ 'नाना प्रकार' भी होता है। वार-धोवणं 'वार' घड़े को कहते हैं। गुड़, राब आदि से लिप्त घड़े का धोवन वार-धोवन है। संसेइमं : दो अर्थ (१) आटे का धोवन, (२) उबाली हुई भाजी या साग जिसे ठंडे जल से सींचा जाए, वह धोवन । अहुणाधोय : अधुनाधौत–तत्काल का धोवन, जिसका स्वाद न बदला हो, जिसकी गन्ध न बदली हो, जिसका रंग न बदला हो, विरोधी शस्त्र द्वारा जो अचित्त न हुआ हो, वह अप्रासुक (सजीव) होने से मुनि के लिए अग्राह्य है। चिराधोयं : घिरधौत—जो प्रासुक (निर्जीव) हो गया हो, वह चिरधौत जल मुनि के लिए ग्राह्य है। अर्थात् जो वर्णादि परिणत (परिणामान्तर प्राप्त) हो गया हो। परम्परा के अनुसार जिस धोवन को अन्तर्मुहूर्त काल न हुआ हो, वह ग्राह्य नहीं है। परिष्ठापनयोग्य धोवन—जो आरनाल आदि का अत्यन्त अम्ल (खट्टा), देर तक रखा रहने से दुर्गन्धयुक्त हो और जिससे प्यास न बुझे, ऐसा धोवन ग्रहण नहीं करना चाहिए। कदाचित् अति भक्तिवश किसी श्रावक ने दे दिया हो या साधु ने उतावली में ले लिया हो, तो उस धोवन को न स्वयं पीए, न ही दूसरे साधुओं को पिलाए, ८०. (क) आचारांगसूत्र (ख) तिल-तंडुल-उसणोदय-चणोदय-तुसोदय-अविद्धत्थं । अण्णं तहाविहं वा अपरिणदं णेव गेण्हिज्जा ॥ -मूलाचार (बट्टकेर आचार्यकृत), गाथा ४७३ ८१. (क) उच्चं वर्णाधुपेतं द्राक्षापानादि, अवचं वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि । . -हारि. वृत्ति, पत्र १७७ (ख) उच्चावयं अणेगविध–वण्ण-गंध-रस-फासेहिं हीण-मज्झिममुत्तमं । -अग.चू., पृ. ११८ (ग) 'सो य गुल-फाणितादि भायणं, तस्स धोवणं वारधोवणं ।' -जिन. चूर्णि, पृ. १८५ (घ) संस्वेदजं पिष्टोदकादि ।' . —हारि. वृत्ति, पत्र १७७ (ङ) जम्मि किंचि सागादी संसेदेत्ता सित्तोसित्तादि कीरति तं संसेइमं । -अगस्त्यचूर्णि, पृ. ११९ (क) ......अहणाधोयं अणंबिलं अव्वोक्कतं अपरिणयं अविद्धत्थं अफासुयं अणेसणिज ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिग्गाहिज्जा । -आचा. चूर्णि, १/९९ (ख) 'आउक्कायस्स चिरेण परिणामो' त्ति मुद्दियापाणगं पक्खित्तमेत्तं बालगे वा धोयमेत्ते, सागे वा पक्खित्तमेत्ते, अभिणवधोतेसु चाउलेसु । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ११९ (ग) ...अह. पुण एवं जाणेज्जा चिराधोयं अंबिलं वोक्कंतं, परिणतं विद्धत्थं फासुयं जाव पडिगाहेजा । -आचारांग चूर्णि १/९९ (घ) दशवै. (आचारमणिमंजूषा) भाग १, पृ. ४६८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy