SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्ययन :पिण्डैषणा १६९ इन तीनों परिस्थितियों में महिला से आहार-पानी लेने का निषेध हिंसा की संभावना के कारण है। दूसरे को जरा-सा भी कष्ट में डाल कर अपना पोषण करना संयमीजनों को इष्ट नहीं है। अतः अहिंसक की दृष्टि से ऐसी दात्री से आहार को ग्रहण करने का निषेध है। किन्तु इन तीनों परिस्थितियों में भी महिला साधु-साध्वी को आहार देना चाहे तो उससे निम्नोक्त रूप से लिया जा सकता है—(१) गर्भवती महिला के उपभोग के बाद बचा हुआ विशिष्ट आहार दे तो, (२) कालमासवती गर्भवती महिला बैठी हो तो बैठी-बैठी या खड़ी हो तो खड़ी-खड़ी ही आहार दे तो, (३) स्तनपायी बालक कोरा स्तनपायी न हो, अन्य आहार भी लेने लगा हो और उसे अलग छोड़ने पर रोता न हो और उसकी माता आहार दे तो। रुदन करते हुए शिशु को छोड़ कर उसकी माता आहार दे तो नहीं लिया जा सकता।६१ शंकित और उद्भिन्न दोषयुक्त आहारग्रहणनिषेध १४१. जं भवे भत्तपाणं तु कप्पाऽकप्पंमि संकियं । देंतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं ॥ ५९॥ १४२. दगवारएण पिहियं नीसाए पीढएण वा । लोढेण वा वि लेवेण सिलेसेण व केणइ ॥ ६०॥ १४३. तं च+उब्भिंदिउं देजा, समणट्ठाए व दायए । __देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६१॥ [१४१] जिस भक्त-पान के कल्पनीय या अकल्पनीय होने में शंका हो, उसे देती हुई महिला को मुनि निषेध कर दे कि मेरे लिए इस प्रकार का आहार कल्पनीय (ग्राह्य) नहीं है ॥ ५९॥ [१४२-१४३] पानी के घड़े से, पत्थर की चक्की (पेषणी) से, पीठ (चौकी) से, शिलापुत्र (लोहे) से, मिट्टी आदि के लेप से, अथवा लाख आदि श्लेषद्रव्यों से, अथवा किसी अन्य द्रव्य से पिहित (ढंके, लीपे या मूंदे हुए) बर्तन का श्रमण के लिए मुंह खोल कर आहार देती हुई महिला को मुनि निषेध कर दे कि मेरे लिए यह आहार ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ६०-६१॥ - विवेचन शंकित दोष आहार शुद्ध (सूझता) होने पर भी कल्पनीय (एषणीय, ग्राह्य या दोषरहित) अथवा अकल्पनीय के विषय में साधु शंकायुक्त हो तो उक्त शंका का निर्णय किये बिना ही उसे ले लेना शंकित दोष है। यह ६०. (ख) एत्थ दोसा-सुकुमालसरीरस्स करेहिं हत्थेहिं सयणीए वा पीडा, मज्जाराती वा खाणावहरणं करेज्जा । -अग. चूर्णि, पृ. ११२ ६१. (क) भुत्तसेसं पडिच्छए । -दसवेयालियसूत्तं (मूलपाठ टिप्पण), पृ. २४-२५ (च) इह च स्थविरकल्पिकानाम् निषोदनोत्थानाभ्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम् । जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानं अकल्पिकमेवेति सम्प्रदायः । - -हारि. वृत्ति, पत्र १७१ (ग) तत्थ गच्छवासी जति थणजीवी णिक्खित्तो तो ण गेण्हंति, रोयतु वा वा मा, अह अन्नपि आहारेति, तो जति न रोवइ तो गेण्हंति, अह अपियंतओ णिक्खित्तो थणजीवी रोवइ तो ण गेण्हंति । जिन. चूर्णि, पृ. १८० + पाठान्तर—'उब्भिंदिया ।'
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy