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________________ १६८ दशवकालिकसूत्र पदार्थ) यदि उसके उपभोग में आ रहे हों, तो मुनि ग्रहण न करे, किन्तु यदि (वे पान-भोजन) उसके खाने से बचे हुए हों तो उन्हें ग्रहण कर ले ॥५४॥ [१३७-१३८] कदाचित् कालमासवती (पूरे महीने वाली) गर्भवती महिला खड़ी हो और श्रमण (को आहार देने) के लिए बैठे, अथवा बैठी हो और खड़ी हो जाए तो वह (उसके द्वारा दिया जाने वाला) भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्प्य (अग्राह्य) होता है। अतः साधु (आहार) देती हुई (उस गर्भवती स्त्री) से कह दे कि ऐसा आहार मेरे लिए कल्पनीय (ग्राह्य) नहीं है ॥ ५५-५६॥ [१३९-१४०] बालक अथवा बालिका को स्तनपान कराती हुई महिला यदि उसे रोता छोड़ कर भक्त-पान लाए तो वह भक्त-पान संयमियों के लिए अकल्पनीय (अग्राह्य) होता है। (अतः साधु) आहार देती हुई (उस स्तनपायिनी महिला) को निषेध करे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ५७-५८॥ विवेचन अहिंसा की दृष्टि से आहारग्रहण-निषेध- प्रस्तुत ५ सूत्र गाथाओं (१३६ से १४० तक) में तीन परिस्थितियों में दात्री महिला से आहार लेने का निषेध किया गया है १. यदि गर्भवती स्त्री के लिए निष्पन्न आहार उसके उपभोग में आने से पहले ही दिया जा रहा हो। २. पूरे महीने वाली गर्भवती महिला साधु को आहार देने हेतु उठे या बैठे तो। ३. शिशु को स्तनपान कराती हुई महिला उसे स्तनपान कराना छुड़ा कर उसे रोता छोड़ कर साधु को आहार पानी देने लगे तो। भुजमाणं विवजेजा : अभिप्राय- गर्भवती महिला के लिए जो खास आहार बना हो, साधु-साध्वी को उसके उपभोग करने से पहले वह आहार नहीं लेना चाहिए, क्योंकि उसका खास आहार साधु या साध्वी द्वारा ले लेने से गर्भपात या मरण हो सकता है। कालमासवती गर्भिणी से आहार लेने में दोष- जिसके गर्भ को नौवां महींना या प्रसूतिमास चल रहा हो, वह कालमासवती (पूरे महीने वाली) गर्भवती साधु को भिक्षानिमित्त उठ-बैठ करेगी तो गर्भ स्खलित होने की संभावना है। ऐसी कालमासवती के हाथ से भिक्षा लेना 'दायक' दोष है। विशेष यह है कि जिनकल्पी मुनि कालमासिनी का विचार न करके गर्भ के आरम्भ से ही गर्भवती के हाथ से आहार ग्रहण नहीं करते। ___ स्तनपायी बालक को रोते छोड़कर भिक्षादात्री से आहार लेने में दोष यह है कि बालक को कठोरभूमि पर रखने एवं कठोर हाथों से ग्रहण करने से उसमें अस्थिरता आती है, वह माता के बिना भयभीत हो जाता है, इससे परितापदोष होता है। उस बालक को बिल्ली आदि कोई जानवर उठा कर ले जा सकता है। ५८. इमे दोसा—परिमितमुवणीतं, दिण्णे सेसमपजत्तं ति डोहलस्साविगमे मरणं, गब्भपतणं वा होजा, तीसं तस्स वा गब्भस्स सण्णीभूतस्स अपत्तियं होज । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. १११ ५९. (क) प्रसूतिकालमासे 'कालमासिणी' । -अग. चूर्णि, पृ. १११ (ख) कालमासवती-गर्भाधानानवममासवती । -हारि. वृत्ति, पत्र १७१ (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. २३३ ६०. (क) तस्स निक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं घेप्पमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो, मज्जराइ व अवधरेज्जा । —जिन. चूर्णि, पृ. १८०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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