SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ दशवैकालिकसूत्र पश्चात्कर्म दोष की सम्भावनावश असंसृष्ट अग्राह्य और संसृष्ट ग्राह्य – साधु को आहार देने के लिए लाते समय लेप लगने वाली वस्तु से हाथ आदि अलिप्त —असंसृष्ट हों तो वह आहार लिया जा सकता है, किन्तु साधु को भिक्षा देने के निमित्त से जो हाथ, बर्तन आदि लिप्त हुए हों तो गृहस्थ द्वारा उन्हें बाद में सचित्त जल से धोने के कारण पश्चात्कर्म दोष होने की सम्भावना रहती है। अतः असंसृष्ट हाथ और पात्र आदि से भिक्षा लेने का निषेध है। यदि भिक्षा देते समय लिप्त हुए हाथ, कुड़छी, पात्र आदि से स्वयं भोजन करे या दूसरे को परोसे तो पश्चात्कर्मदोष नहीं लगता, ऐसी स्थिति में अर्थात् —जहां हाथ, कुड़छी, पात्र आदि में साधु के निमित्त से पश्चात्कर्म की संभावना न हो. वहां यह निषेध नहीं है। वह आहार ग्राह्य है। इसीलिए अगली गाथा में कहा गया है भिक्षा देते समय लेप्यवस्तु से लिप्त (संसृष्ट) हाथ आदि (जिनमें पश्चात्कर्म की संभावना न हो) से आहार ग्रहण किया जा सकता है, यदि वह ऐषणीय हो, अर्थात् —उद्गमादि दोषों से रहित हो। यह इन दोनों गाथाओं का तात्पर्य है। अनिसृष्ट-आहार-ग्रहणनिषेध और निसृष्ट ग्रहणविधान १३४. दोण्हं तु भुंजमाणाणं एगो तत्थ निमंतए । . दिजमाणं न इच्छेज्जा, छंदं से पडिलेहए ॥५२॥ १३५. दोण्हं तु भुंजमाणाणं, दो वि तत्थ निमंतए । दिजमाणं पडिच्छेज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ॥५३॥ ___ [१३४] (जहां) दो स्वामी या उपभोक्ता (भोजन करने वाले) हों और उनमें से एक निमंत्रित करे (दूसरा नहीं), तो मुनि उस दिये जाने वाले आहार को ग्रहण करने की इच्छा न करे। वह दूसरे के अभिप्राय को देखे। (यदि उसे देना अप्रिय लगता हो तो न ले और प्रिय लगता हो तो एषणीय आहार ले ले) ॥५२॥ [१३५] दो स्वामी अथवा उपभोक्ता (भोजन करने वाले) हों और दोनों ही आहार लेने के लिए निमंत्रण करें, तो मुनि उस दिये जाने वाले आहार को, यदि वह एषणीय हो तो ग्रहण कर ले ॥ ५३॥ विवेचन— प्रस्तुत सूत्रगाथाद्वय (१३४-१३५) में से पहली गाथा में 'अनिसृष्ट' नामक १५वें उद्गमदोषयुक्त भिक्षा ग्रहण का निषेध है और अगली गाथा में निसृष्ट (एषणीय) भक्तपान लेने का विधान है। अनिसृष्ट : अर्थ और दोष का कारण अनिसृष्ट का अर्थ है—अननुज्ञात । साधु को प्रत्येक वस्तु उसके ५३. (ग) आमपिढें आमओ लोट्टो । सो अप्पिंधणो पोरुसीए परिणमति । बहुइंधणो आरतो चेव । –अ. चू., पृ. ११० (घ) कुक्कुसा चाउलत्तया । -अ. चू., पृ. ११० (ङ) उक्कुट्टो णाम सचित्तवणस्सति-पत्तंकुरफलाणि वा उदूक्खले छुब्भति, तेहिं हत्थो लित्तो, एस उक्कट्ठो हत्थो भण्णति। सचित्तवणस्सती–चुण्णो ओक्कुट्ठो भण्णति। -नि.भा. गाथा १४८ चू., नि. ४/३९ चू. (च) उक्कुटुं धूरो सुरालोट्टो, तिल-गोधूम-जवपिढें वा । अंबिलिया-पीलुपण्णियातीणि वा उक्खलछुण्णादि। -अ. चू., पृ. ११० ५४. माकिर पच्छाकम्मं होज्ज असंसद्धगंतओ वजं । करमत्तेहिं तु तम्हा संसट्टेहिं भवे गहणं ॥ -निशीथ भाष्य गाथा १८५२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy