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________________ १६५ पंचम अध्ययन : पिण्डैषणा अचित्त देय वस्तु को सचित्त पर रखता 'निक्षिप्त' दोष है । हरी वनस्पति, सचित्त जल, अग्नि आदि सचित्त का स्पर्श करना, या सचित्त से रगड़ना 'घट्टित' दोष है। यद्यपि सचित्त जल का हिलाना, अवगाहन करना और चलाना, ये तीनों दोष सचित्त स्पर्श के अन्तर्गत आ जाते हैं, तथापि विशेषरूप से समझाने के लिए इनका उल्लेख किया गया है। ये चारों दोष एषणा के 'दायक' नामक छठे दोष में आ जाते हैं । ५° 'पुरेकम्मेण हत्थेण ० ' इत्यादि दोष—– साधु को भिक्षा देने के निमित्त पहले सचित्त जल से हाथ, कड़छी या बर्तन आदि धोना अथवा अन्य किसी प्रकार का आरम्भ (जीवहिंसा) करना पूर्वकर्म (या पुराकर्म) दोष है। भाजन और मात्रक मिट्टी के बर्तन अमत्रक या मात्रक और कांसे आदि धातुओं के पात्र भाजन कहलाते हैं 12 'उदओल्लेण' से 'उक्कुट्ठगतेण' तक १७ दोष प्रस्तुत १७ गाथाओं में 'उदकार्द्र' से लेकर 'उत्कृष्ट' तक जो १७ दोष हाथ, कड़छी और भाजन से लगते हैं, उनका वर्णन किया गया है। इनमें से कुछ अप्काय से, कुछ पृथ्वीकाय से और कुछ वनस्पतिकाय से सम्बन्धित दोष हैं। कठिन शब्दों के विशेष अर्थ उदओल्ले—– उदकार्द्र, जिससे पानी की बूंदें टपक रही हों । ससिणिद्धे 'सस्निग्ध' जो केवल पानी से गीला-सा हो । ऊसे ऊष या क्षार, ऊसर मिट्टी । गैरिक — लाल मिट्टी, गेरू । वण्णिय— वर्णिका, पीली मिट्टी (१२ सेडिय—सफेद मिट्टी, खड़िया मिट्टी । सोरट्ठिय— सौराष्ट्रका, सौराष्ट्र में पाई जाने वाली एक प्रकार की मिट्टी, जिसे गोपीचन्दन भी कहते हैं । पिट्ठ पिष्ट — तत्काल पीसा हुआ आटा, अथवा चावलों का कच्चा और अपरिणत आटा । कुक्कुस — अनाज या धान का भूसा या छिलका । उक्कुट्ट : उत्कृष्ट : दो अर्थ — फलों के छोटे-छोटे टुकड़े या वनस्पति का चूर्ण (तिल, गेहूं और यवों का आटा, अथवा ओखली में कूटे हुए इमली या पीलुपर्णी के पत्ते, लौकी और तरबूज आदि के सूक्ष्म खण्ड)। ये सब दोष सचित्त से संसृष्ट हाथ, कड़छी या भाजन के द्वारा साधु को देने से लगते हैं, अतः साधु को इन दोषों में से किसी भी प्रकार के दोष से युक्त आहार को ग्रहण नहीं करना चाहिए । इनमें से तत्काल के आटे से लिप्त हाथ आदि से लेने का दोष बताया है, उसका कारण यह कि तत्काल के आटे में एकेन्द्रिय जीवों के आत्मप्रदेश रहने की सम्भावना रहती है तथा अनछाना होने से उसमें अनाज के अखण्ड दानों के रहने की सम्भावना है। इसलिए यह सचित्त - स्पर्श दोष है । १३ ५०. ५१. ५२. ५३. (क) तत्थ फासुए फासुयं साहरइ १, फासुए अफासुयं साहरइ २, अफासुए फासूयं साहरइ ३, अफासुए अफासुयं साहरति ४ । भंगाणं पिंडनिज्जुत्तीए विसेसत्थो । —– जिन. चूर्णि, पृ. १७८ (ख) पिण्डनिर्युक्ति ५६५ से ५७१ क (क) 'पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दट्ठूणं हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकम्मं भण्णइ ।' (ख) पुढविमओ मत्तओ । कंसमयं भायणं । (क) उदकाद्रो नाम गलदुदकबिन्दुयुक्तः । सस्निग्धो नाम ईषदुदकयुक्तं । (ख) ससिणिद्धं—जं उदगेण किंचि णिद्धं, ण पु — हारि. वृत्ति, पृ. १७ - अ. चूर्णि, पृ. १०८ ल । ( ग ) ऊषः पांशुक्षारः । गैरिका धातुः । वर्णिका पीतमृत्तिका । श्वेतिका: शुक्लमृत्तिका । —हारि. वृत्ति, पत्र १७० (क) सोरट्ठिया तवरिया सुवण्णस्स ओघकरणमट्टिया । (ख) 'सौराष्ट्रया ढकी तुवरी पर्पटी कालिकासती । सुजाता देशभाषायां 'गोपीचन्दनमुच्यते ॥" शा. नि., पृ. ६४ — जिन. चूर्णि, पृ. १७८ — निशीथ ४/३९ चूर्णि
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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