SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ दशवकालिकसूत्र सर्वथा निष्काम बन जाती है। जब केवली भगवान् शैलेशी-अवस्था को प्राप्त करके सर्वथा अयोगी हो जाते हैं, तब उनके अघातीचतुष्टय का भी सर्वथा क्षय हो जाता है। ऐसी स्थिति में वे सर्वथा नीरज अर्थात् कर्मरज से सर्वथा रहित हो जाते हैं और मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। सिद्धिगति में पहुंचने के पश्चात् वे लोक के मस्तक पर अर्थात् ऊर्ध्वलोक के छोर– अग्रभाग पर जाकर प्रतिष्ठित हो जाते हैं और शाश्वत सिद्ध (विदेहमुक्त) हो जाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में मुक्त (सिद्ध) जीवों के सम्बन्ध में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि "सिद्ध अलोक से प्रतिहत हैं, लोकान में प्रतिष्ठित हैं, यहां (मनुष्य-लोक में) वे शरीर छोड़ देते हैं और वहां (लोकाग्र में) जाकर सिद्ध होते हैं।" सिद्ध भगवान् को शाश्वत इसलिए कहा गया है कि वे सिद्ध होने के पश्चात् पुनः संसार में आकर जन्म धारण नहीं करते, क्योंकि उन्होंने संसार में जन्म-मरण के कारणभूत कर्मबीजों को सर्वथा दग्ध कर दिया है। जैसे बीज के रहने पर ही उसमें अंकुर उत्पन्न होने की संभावना रहती है, बीज ही नष्ट हो जाए तो अंकुर के उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः सिद्धात्मा का मुक्त होने के पश्चात् संसार में लौट कर आने और जन्म धारण करने की भ्रान्त मान्यता का निराकरण करने हेतु शाश्वत पद दिया गया है।३० इस प्रकार आत्मा की क्रमिक शुद्धि द्वारा उत्तरोत्तर विकास होते-होते विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने का क्रम इन गाथाओं में अंकित है। सुगति की दुर्लभता और सुलभता ८०. सुहसायगस्स समणस्स सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोइस्स* दुल्लहा सोग्गइ+ तारिसगस्स ॥ ४९॥ १२९. (ख) 'सेलेसिं पडिंवजइ भवधारिणजकम्मक्खयट्ठाए ।' -जिनदास चूर्णि, पृ. १६३ (ग) उचितसमयेन योगानिरुद्धय मनोयोगादीन् शैलेशी प्रतिपद्यते भवोपग्राहिक-कशिक्षयाय। -हारि. वृत्ति, पत्र १५९ (घ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १७१ (ङ) दशवै. (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. १३३ १३०. (क) 'कर्म क्षययित्वा भवोपग्राह्यपि 'सिद्धिं गच्छति लोकान्तक्षेत्ररूपां, नीरजाः सकलकर्मरजोनिर्मुक्तः।' –हारि. वृत्ति, पत्र १५९ (ख) 'भवधारणिज्जाणि कम्माणि खवेउं सिद्धिं गच्छइ, कहं ? जेण सो नीरओ, नीरओ नाम अवगतरओ नीरओ।' -जिन. चूर्णि, पृ..१६३ (ग) लोगमत्थगे लोगसिरसि ठितो सिद्धो कतत्थो सासतो सव्वकालं तहा भवति। -अगस्त्य चू. पृ. ९६ (घ) त्रैलोक्योपरिवर्ती सिद्धो भवति, 'शाश्वत:'-कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधर्म इति भावः । -हारि. वृत्ति, पत्र १५९ , (ङ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १३५ (च) अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया । इहं बोंदिं चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झइ ॥ -उत्तरा० ३३/५६ . * पाठान्तर- 'पहोअस्स ।' + सुगई ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy