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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका १३३ किये हुए कर्मरज को झाड़ देता है, या ध्वंस कर डालता है। अथवा अबोधि-अज्ञान के कारण जो कलुष-पाप किया है, उससे अर्जित कर्मरज को वह धुन डालता है। तात्पर्य यह है कि महाव्रत, समिति, गुप्ति, परीषहविजय, दशविध श्रमणधर्म, अनप्रेक्षा एवं द्वादशविध तपश्चरण रूप अनुत्तर चारित्रधर्म के उत्कृष्ट पालन से वह साधक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का क्षय (ध्वंस) कर देता है। आत्मा पर लगी हुई घातिकर्मरूपी रज के दूर होते ही केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट हो जाते हैं। उस स्थिति में आत्मा में सर्वव्यापी अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन प्रकट हो जाते हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन को सर्वत्रग (सर्वव्यापी) इस दष्टि से कहा गया है कि इनके द्वारा सभी विषय जाने-देखे जा सकते हैं। नैयायिक आदि दर्शनों की तरह जैनदर्शन आत्मा को क्षेत्र की दृष्टि से सर्वव्यापी नहीं मानता, वह आत्मा के निजी गुण-ज्ञान की अपेक्षा (केवलज्ञान के विषय की दृष्टि से) सर्वव्यापी मानता है ।२६ सर्वव्यापी ज्ञान-दर्शन के प्राप्त होते ही वह आत्मा केवलज्ञान और जिन (रागद्वेषविजेता) बन जाता है, और अपने केवलज्ञान के आलोक में लोक और अलोक को जानने-देखने लगता है।२७ अर्थात् केवलज्ञान के प्रकाश में लोकालोक को हाथ पर रखे हुए आंवले की तरह जानता देखता है।१२८ शैलेशी अवस्था, नीरजस्कता एवं सिद्धि : कारण और स्वरूप- शैलेशी का अर्थ है मेरु। जो अवस्था मेरुपर्वत की तरह अडोल–निष्कम्प होती है, उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। शैलेशी अवस्था में आत्मा सर्वथा निष्काम हो जाती है। प्रस्तुत गाथा में शैलेशी (निष्कम्प) अवस्था का कारण बताया गया है—योगों का निरोध। आत्मा स्वभाव से निष्कम्प ही है, किन्तु योगों के कारण इसमें कम्पन होता रहता है। आत्मप्रदेशों में यह गति, स्पन्दन या कम्पन आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न होता है, उसे ही योग कहते हैं। योग अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति या हलचल। इन तीनों योगों की प्रवृत्ति जब शुभ कार्य में होती है, तब व्यक्ति शुभास्त्रव करता है और अशुभ कार्यों में प्रवृत्ति होती है, तब अशुभास्रव करता है। परन्तु अरिहन्त केवली भगवान् के जब तक आयुष्य होता है, तब तक शुभ प्रवृत्ति ही संभव है, जिसके फलस्वरूप पुण्यबन्ध (मात्र सातावेदनीय) होता है। अरिहन्त केवली में चार अघातीकर्मों (वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म) शेष रहते हैं, उनका भी क्षय करने के लिए योगनिरोध करते हैं। योगों का सर्वथा निरोध तद्भवमोक्षगामी जीव के अन्तकाल में होता है। पहले मन का, उसके पश्चात् वचन का और अन्त में शरीर का योग निरुद्ध होता है ।।२९ और आत्मा शैलेशी-अवस्थापन होकर १२५. (ख) धुनोति अनेकार्थत्वात् पातयति 'कर्मरजः'-कर्मैव आत्मरंजनाद्रज इव रजः, अबोधिकलुषेण-मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः। —हारि. टीका, पत्र १५९ १२६. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १३१ (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १७१ . (ग) 'सव्वत्थ गच्छतीति सव्वत्तगं केवलनाणं केवलदसणं च ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९५ (घ) सर्वत्रगं ज्ञानं-अशेषज्ञेयविषयं, 'दर्शन' च-अशेषदृश्यविषयम् । हारि. वृत्ति, पत्र १५९ १२७. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. १३१ १२८. लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं, अलोकं च अनन्तं, जिनो जानाति केवली । लोकालोकौ च सर्व नान्यतरमेवेत्यर्थः । -हारि. वृत्ति, पत्र १५९ १२९. (क) "तदा जोगे निलंभित्ता" भवधारणिज्जकम्मविसारणत्थं सीलस्स ईसति-वसयति सेलेसिं । त्ततो सेलेसिप्पभावेण तदा कम्म-भवधारणिज्जं कम्मं सेसं खवित्ताणं सिदिधं गच्छति णीरतो-निक्कम्ममलो। -अ.चु., पृ. ९६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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