SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका उज्जुमइ-खंति-संजमरयस्स । परीसहे जिणंतस्स सुलहा सोग्गइ तारिसगस्स ॥ ५० ॥ [ पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई । जेसिं पिओ तवो संजमो य, खंती य बंभचेरं च ॥ ८१. तवोगुणपहाणस्स [८०] जो श्रमण सुख का रसिक (आस्वादी) है, साता के लिए आकुल रहता है, अत्यन्त सोने वाला (निकाम-शायी) है, प्रचुर जल से बार-बार हाथ-पैर आदि को धोने वाला होता है, ऐसे श्रमण को सुगति दुर्लभ है ॥ ४९ ॥ १३५ [८१] जो श्रमण तपोगुण में प्रधान है, ऋजुमति (सरलमति) है, क्षान्ति एवं संयम में रत है, तथा परीषहों को जीतने वाला है, ऐसे श्रमण को सुगति सुलभ है ॥ ५० ॥ [ भले ही वे पिछली वय (वृद्धावस्था) में प्रव्रजित हुए हों किन्तु जिन्हें तप, संयम, क्षान्ति (क्षमा या सहनशीलता) एवं ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे शीघ्र ही देवभवनों (देवलोकों) में जाते हैं ।] विवेचन — सुगति किसको दुर्लभ ? – प्रस्तुत गाथा सूत्र (८०) में सुगति के लिए अयोग्य श्रमण की विवेचना की गई है। ऐसे चार दुर्गुण जिस साधु या साध्वी में होते हैं, वे अहिंसा, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति, उच्चारप्रस्रवणादि- परिष्ठापनासमिति तथा तीन गुप्ति आदि के पालन में शिथिल हो जाते हैं । फलतः आगे चल कर उनके ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों में, दशविध श्रमणधर्म में दोष लगने की संभावना है। वे संयम और तप में बहुत कच्चे हो जाते हैं। सुख-सुविधाभोगी होने के कारण संभव है, वे साधुजीवन के मौलिक नियमों को भी ताक में रख दें। इसलिए उनके चारित्रधर्म के पालन में शैथिल्य के कारण सुगति दुर्लभ बताई है। सुहसायगस्स : सुख-स्वादक : तीन अर्थ (१) अगस्त्यचूर्णि के अनुसार — सुख का स्वाद लेने (चखने) वाला। (२) जिनदास के अनुसार — जो सुख की कामना या प्रार्थना करता है। (३) हरिभद्रसूरि के अनुसार — प्राप्त सुख को आसक्तिपूर्वक भोगने वाला, वास्तव में जो सुखसुविधाओं का रसिक है, वही सुखस्वादक है। O सायाउलगस्स : साताकुल- सुख प्राप्ति के लिए व्याकुल (बेचैन ) या भावी सुख के लिए व्याक्षिप्त व्यग्र ।१३१ सुख और साता में अन्तर — (१) जिनदास महत्तर के अनुसार सुख का अर्थ है अप्राप्त भोग और साता कोष्ठक के अन्तर्गत इस गाथा की व्याख्या चूर्णिद्वय, तथा हारिभद्रीय वृत्ति में भी नहीं की गई है, इसलिए यह गाथा प्रक्षिप्त प्रतीत होती है, किन्तु सभी सूत्रप्रतियों में उपलब्ध है। -सं. १३१. (क) सुहसातगस्स तदा सुखं स्वादयति चक्खति । (ख) सायतिणाम पत्थयति....कामयति । (ग) सुखास्वादकस्य — अभिष्वंगेण प्राप्तसुखभोक्तुः । (घ) साताकुलस्स— तेव सुहेण आउलस्स । (ङ) साताकुलस्य भाविसुखार्थ व्याक्षिप्तस्य । अ. चू., पृ. ९६. — जिनदास चूर्णि, पृ. १६३ - हारि. वृत्ति, पत्र १६० — अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९६ — हारि. वृत्ति, पत्र १६०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy