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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका १२३ यतनापूर्वक खड़े होने का अर्थ है—कछुए की तरह इन्द्रियों का गोपन करके हाथ, पैर आदि का विक्षेप न करते हुए खड़े होना। यतनापूर्वक बैठने का अर्थ है—हाथ-पैर आदि को बार-बार न फैलाना, न सिकोड़ना। यतनापूर्वक सोने का अर्थ है—करवट आदि बदलते या अंगों को पसारते समय निद्रा छोड़कर शय्या का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करना। रात्रि में प्रकामशयनशील न होना, समाधिपूर्वक सोना। यतनापूर्वक खाने का अर्थ है-शास्त्रोक्त प्रयोजन के लिए निर्दोष अप्रणीत (रसरहित) पानभोजन को अगृद्धिभाव से खाना। यतनापर्वक बोलने का अर्थ है— इसी शास्त्र के वाक्यशुद्धिनामक ७वें अध्ययन में वर्णित भाषासम्बन्धी नियमों का पालन करना, साधु-साध्वी के योग्य, मृदु एवं समयोचित वचन बोलना।०३ पापकर्म के अबन्धक की चार अर्हताएँ : अर्थ— (१) सर्वभूतात्मभूत-षड्जीवनिकाय को जो आत्मवत् मानता है, (२) जिसकी दृष्टि सम्यग् हो गई, अर्थात् —जिसकी प्रज्ञा में यह बात स्थिर हो चुकी है कि जैसा मैं हूँ, वैसे ही संसार के सब जीव हैं। मेरी ही तरह उन्हें वेदना होती है, उन्हें भी मेरी तरह दुःख अप्रिय है, सुख प्रिय है, (३) सर्वभूतात्मभूत साधक ने ऐसी सहज सम्यग्दृष्टि के साथ-साथ हिंसादि पांचों आस्रवद्वारों को प्रत्याख्यान द्वारा रोक दिया है, पंच महाव्रत ग्रहण करके वह नवीन पापकर्मों को आने नहीं देता, अर्थात् वह पिहितास्रव हो जाता है, और (४) वह दान्त हो जाता है। अर्थात् पांचों इन्द्रियों के विषय में रागद्वेष को जीत लेता है, अकुशल मनवचन-काया का निरोध कर लेता है, क्रोधादि कषायों का निग्रह करके उदय में आने पर उन्हें विफल कर देता है। इन चार अर्हताओं से युक्त साधु या साध्वी पापकर्म का बन्ध नहीं करते। जिसकी आत्मा 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की पवित्र भावना से ओत प्रोत है तथा जो उपर्युक्त सम्यग्दृष्टि आदि गुणों से सम्पन्न है, वह जीव हिंसा करता ही नहीं, उसके हृदय में स्वाभाविक रूप से अहिंसानिष्ठा होती है। अत: वह किसी भी प्राणी को कदापि लेशमात्र भी पीड़ा नहीं पहुंचा सकता। यतनापूर्वक गमनादि क्रिया करते हुए कदाचित कोई जीव इसके निमित्त से निष्प्राण हो भी जाए तो भी वह हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि वह मन-वचन-काया से, कृत-कारित-अनुमोदितरूप से सर्वथा प्राणातिपात से विरत हो गया है, वह किसी भी जीव को पीड़ा पहुंचाने का कामी नहीं है। चूर्णिकार ने गाथाओं द्वारा इसे समझाया है—जैसे छिद्ररहित नौका में जल प्रवेश नहीं कर सकता, भले ही वह अगाध जलराशि पर चल रही हो या ठहरी हुई हो उसी प्रकार आश्रवमुक्त संवृतात्मा निर्ग्रन्थ श्रमण में, भले ही वह जीवों से व्याप्त लोक में चल रहा हो या स्थित हो, पाप प्रवेश नहीं कर पाता।०५ गीता में भी इससे मिलता-जुलता चिन्तन है।०६ १०३. (क) अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९२ (ख) जिनदास चूर्णि, पृ. १६० (ग) हारि. वृत्ति, पत्र १५७ (घ) दशवै (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. ११७ १०४. (क) जिनदास चूर्णि, पृ. १६० (ख) अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९३ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र १५७ (घ) दसवै. (मुनि नथमलजी), पृ. १६३ १०५. (क) ....सव्वभूतेसु अप्पभूतो, कहं ? जहा मम दुक्खं अणिटुं इह, एवं सव्वजीवाणं ति काउं पीडा नो उप्पायइ, एवं जो सव्वभूएसु अप्पभूतो, तेण जीवा सम्मं उवलद्धा भवंति । भणियं च"कट्टेण कंटएण व पादे विद्धस्स वेदणा तस्स। जा होइ अणेव्वाणी णायव्वा सव्वजीवाणं ॥"
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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