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________________ १२२ दशवैकालिकसूत्र साधु-साध्वी की प्रत्येक क्रिया यतनापूर्वक हो— जो साधु-साध्वी, चलने, खड़ा होने, बैठने, सोने, खाने और बोलने आदि की शास्त्रोक्त विधि, उपदेश या आज्ञा के अनुसार नहीं चलता, इन आज्ञाओं का उल्लंघन या लोप करता है, वह अयतनापूर्वक चलने वाला आदि कहा जाता है। यह ध्यान रहे कि साधु को केवल इन्हीं ६ क्रियाओं के बारे में ही नहीं अपितु साधु-जीवन के लिए आवश्यक भिक्षा-चर्या, आहार-गवेषणा, भण्डोपकरण उठानारखना, मलमूत्रादि विसर्जन, स्वाध्याय, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि सभी क्रियाओं में यतनापूर्वक चलना है, अन्यथा उन शास्त्रविहित नियमों का उल्लंघन करने वाला भी अयतनाशील कहलाएगा। इसलिए दिन और रात में होने वाली साधु-साध्वी की सारी चर्या यतनापूर्वक होनी चाहिए। यही इन सूत्रों में संकेत है। - अयतना से पापकर्मों का बन्ध क्यों और कैसे?— पूर्वोक्त गाथाओं में अयतना से गमनादि क्रिया करने वाले साधु-साध्वी के लिए कहा गया है कि वह जीवों की हिंसा करता है। कोई भी कार्य अनुपयोग से, असावधानीपूर्वक किया जाएगा तो हिंसा ही नहीं, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह आदि पाप भी हो जाएंगे। उनके फलस्वरूप पापकर्मों का बन्ध होना स्वाभाविक है। पापकर्मों के बन्ध का अर्थ है—अत्यन्त चीकने कर्मों का उपचय-संग्रह। पाप और उसके कटुफल- पाप चित्तवृत्ति को मलिन बना देता है, आत्महित का नाश करता है, आत्मा को कर्मरज से मलिन कर देता है, नरकादि अधोगति में ले जाता है, प्राणियों के आत्मिक सुख (आनन्द) रस को लूट लेता है, पाप-कर्मबन्ध के कारण जब वे उदय में आते हैं तब, अत्यन्त कटुफल भोगना पड़ना है।०९ वस्तुतः इन पापकर्मों का फल अत्यन्त दुःखप्रद होता है। अयतनाशील प्रमादी के मोह आदि कारणों से पापकर्म का बन्ध होता है, जिसका विपाक अतीव दारुण होता है। जिनदास महत्तर के अनुसार ऐसे प्रमत्त को कुदेव, कुमनुष्य आदि कुगतियों-कुयोनियों की प्राप्ति होती है, जहां उसको बोधि (सम्यक्त्व) प्राप्त होना दुर्लभ होता है।०२ पापकर्मबन्ध से रहित होने का उपाय : समस्त क्रियाओं में यतना— शिष्य की जिज्ञासा सुन कर गुरुदेव ने कहा—'जयं चरे०' इत्यादि। यतनापूर्वक चलने का अर्थ है- ईर्यासमिति से युक्त होकर त्रसादि प्राणियों को देखते हुए उनकी रक्षा करते हुए चलना, पैर ऊंचा उठाकर उपयोगपूर्वक चलना, युगप्रमाण भूमि को देखते हुए शास्त्रीय विधि से चलना। ९९. (क) 'अयतं नाम अनुपदेशेनासूत्राज्ञयेति'। —हारि. टीका, पत्र १५६ (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १६० १००. (क) वही, पृ. १६० (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ९२ (ग) 'पाणा तसा भूता थावरा ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९१ १०१. (क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २९२ (ख) जिनदास चूर्णि, पृ. १५८ १०२. (क) अशुभफलं भवति मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः । -हारि. वृत्ति, पत्र १५६ (ख) कडुयं फलं नाम कुदेवत्त-कुमाणुसत्त-निव्वत्तकं पमत्तस्स भवइ । -जिनदास चूर्णि, पृ. १५९ (ग) .......कडुयं फलं-कडुगविवागं कुगति-अबोधिलाभनिव्वत्तगं । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ९१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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