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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका १२१ प्रमार्जन करके ही अंगसंचालन करे, सोने से पूर्व संस्तारक का प्रमार्जन कर ले तथा सागारी अनशन कर ले, संथारा पौरुषी का पाठ करके सोए, मच्छर, खटमल आदि का स्पर्श होने पर पूंजणी से उसे धीरे से एक ओर कर दे। दुःस्वप्न न आए इसकी जागृति रखे, स्वप्न में घबराए या बड़बड़ाए नहीं। इन या ऐसे ही शास्त्रीय नियमों का पालन करना शयनविषयक यतना है और इनका उल्लंघन करना एतद्विषयक अयतना है।" भोजनविषयक यतना-अयतना— गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं परिभोगैषणा से सम्बन्धित दोषों का वर्जन करके आहार ग्रहण एवं सेवन करे, जैसे—आधाकर्म, औद्देशिक, क्रीत आदि दोषयुक्त आहार न ले, धात्रीकर्म, दूतिकर्म, दैन्य आदि करके आहार न ले, आहार सेवन करते समय पांच मण्डल दोषों का वर्जन करे, सचित्त, अर्द्धपक्व, या सचित्त पर रखे हुए या सचित्त पानी, अग्नि, वनस्पति आदि से संस्पृष्ट आहार न ले, स्वाद के लिए न खाये, शास्त्रोक्त ६ कारणों से सप्रयोजन आहार करे, हित मितभोजी हो, प्रकामभोजी न हो, निर्दोष आहार न मिलने पर या थोड़ा मिलने पर सन्तोष करे, ६ कारणों से आहार का त्याग करे, संविभाग करके सन्तुष्ट होकर शान्तिपूर्वक आहार करे। जूठन न छोडे, न संग्रह करे। गृहस्थ के घर में (अकारण) आहार न करे. न गहस्थ के बर्तन में भोजन करे, इन और ऐसे ही अन्य शास्त्रीय नियमों का पालन करना भोजनविषयक यतना है। इसके विपरीत, इन नियमों का अतिक्रमण करना एतद्विषयक अयतना है। __ भाषासम्बन्धी यतना-अयतना— साधु-साध्वी भाषासमिति से सम्बन्धित नियमों का पालन करे। 'सुवाक्यशुद्धि' नामक अध्ययन में बताये भाषासम्बन्धी विवेक का पालन करे, सत्यभाषा एवं व्यवहारभाषा बोले, असत्य एवं मिश्रभाषा न बोले, कर्कश, कठोर, निश्चयकारी, छेदन-भेदनकारी, हिंसाकारी, सावध, पापकारी वचन न बोले, गाली न दे, अपशब्द न बोले, चुगली न खाए, न परनिन्दा में प्रवृत्त हो, जिससे दूसरा कुपित हो, दूसरे को आघात पहुंचे ऐसी मर्मस्पर्शी या भूतोपघाती भाषा न बोले, न सावधानुमोदिनी भाषा बोले, जिस विषय में न जानता हो उस विषय में निश्चित बात न कहे, वैर, फूट, मनोमालिन्य, द्वेष, कलह एवं संघर्ष पैदा करने वाली भाषा न बोले, सांसारिक लोगों के विवाहादिविषयक प्रपंच में न पड़े, न ही ज्योतिष निमित्त या भविष्य के बारे में कथन करे। इन और ऐसे ही अन्य भाषाविषयक नियमों का पालन करना यतना है और इनका उल्लंघन करना अयतना है।८ ९७. (क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग१, पृ. २९८ (ख) आसमाणो नाम उवट्ठिओ, सो तत्थ सरीराकुंचणादीणि करेइ, हत्थपाए विच्छुभइ तओ सो उवरोधे वट्टइ । -जिनदास चूर्णि, पृ. १५९ (ग) अजयंति आउंटेमाणो य ण पडिलेहइ ण पमजइ, सव्वराई सुव्वइ, दिवसाओ वि सुयइ, पगामं निगामं वा सुवइ । -जिनदास चूर्णि, पृ. १५९ (घ) अयतं स्वपन्—असमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना । -हारि. टीका, पत्र १५७ ९८. (क) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. १६० (ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २९५ (ग) 'अजतं -सुरुसुरादि काकसियालभुत्तं एवमादि।' -अगस्त्यचूर्णि, पृ. ९२ (घ) 'अयतं भुंजानो—निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालभक्षितादिना वा ।' -हारि. टीका, पत्र १५७ (ङ) अयतं भाषमाणो गृहस्थभाषया निष्ठरमन्तरभाषादिना वा । -वही, पत्र १५७ (च) अजयं गारत्थियभाहिं भासइ ढड्ढरेण वेरत्तियास एवमादिस ॥ -जिनदास चूर्णि, पृ. १५९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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