SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशवैकालिकसूत्र महाव्रत और रात्रिभोजनविरमणव्रत में अन्तर— यहां प्राणातिपातविरमण आदि को महाव्रत और रात्रिभोजनविरमण को व्रत कहा गया है। किन्तु यहां व्रत शब्द अणुव्रत और महाव्रत दोनों से भिन्न है, क्योंकि अणुव्रत और महाव्रत ये दोनों मूलगुण हैं, किन्तु रात्रिभोजनविरमणव्रत मूलगुण नहीं है। व्रतशब्द का यह प्रयोग सामान्यविरति या नियम के अर्थ में है। महाव्रत : क्या, क्यों और कैसे ?– मूलगुण अहिंसादि पांच हैं। इन्हीं की महाव्रत संज्ञा है। व्रतशब्द साधारण है। इसके दो भेद आंशिक विरति (देशविरति) और सर्वविरति के आधार पर किए गए हैं—अणुव्रत और महाव्रत। ये दो शब्द सापेक्ष हैं तथा विरति की अपूर्णता और पूर्णता की अपेक्षा से प्रयुक्त होते हैं। अर्थात् मूल में अंकित पाठ के अनुसार मन-वचन-काया से प्राणातिपातादि न करना, न कराना और न अनुमोदन करना, यों नौ कोटि प्रत्याख्यानों से महाव्रत पूर्णविरति रूप होते हैं, जबकि अणुव्रत में इनमें से कुछ विकल्प (छूटें रियायतें) रख कर शेष प्राणातिपात आदि का त्याग किया जाता है। इस प्रकार अपूर्ण विरति अणुव्रत कहलाती है और पूर्ण विरति महाव्रत। व्रत के निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों रूप होते हैं। इस प्रकार (१) अणुव्रतों की अपेक्षा महान् (विशाल) होने के कारण ये (अहिंसादि पांचों) महाव्रत कहलाते हैं। (२) दूसरा कारण है संसार के सर्वोच्च महाध्येय-मोक्ष के अतिनिकट के साधक होने से महाव्रत कहलाते हैं। (३) इन व्रतों को धारण करने वाली आत्मा अतिमहान् एवं उच्च हो जाती है, इन्द्र एवं चक्रवर्ती आदि उसको मस्तक झुकाते हैं, इसलिए भी ये महाव्रत कहलाते हैं। (४) अथवा इन्हें चक्रवर्ती राजा. महाराजा अथवा तीव्रवैराग्य सम्पन्न महान वीर व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) धारण कर सकते हैं, इनका पालन कर सकते हैं, इस कारण भी ये महाव्रत कहलाते हैं, (५) ये सकलरूप से अंगीकार किये जाते हैं, विकलरूप से नहीं, तथा इनमें हिंसादि पांच पापों का जो त्याग किया जाता है, वह समग्र द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव की अपेक्षा से किया जाता है, इस कारण भी इन्हें महाव्रत कहा गया है ।२ महाव्रत : सर्वविरमणरूप- पांचों ही महाव्रतों के मूलपाठ में 'सव्वं' या 'सव्वाओ' शब्द निहित है, जिसका तात्पर्य है सभी प्रकार के (समस्त) प्राणातिपात आदि से विरतिरूप ये पांचों महाव्रत हैं। तत्पश्चात् प्रत्येक महाव्रत की प्रतिज्ञा के पाठ में सर्वशब्द का विशेष स्पष्टीकरण किया गया है। जैसे कि सर्वप्राणातिपातविरमण महाव्रत में से सुहुमं वा बायरं वा' इत्यादि कहा गया है। तत्पश्चात् इसी सर्वशब्द के सन्दर्भ में तीनकरण, तीनयोग से (कृत, कारित, अनुमोदनरूप से, मन-वचन-काया से) प्राणातिपात आदि पांचों पापों के सर्वथा प्रत्याख्यान का उल्लेख किया गया है। पांचों महाव्रतों के प्रतिज्ञा-पाठ में उक्त सर्वप्राणातिपात आदि का तात्पर्य है—मैं मन-वचन ५०. दशवै. (मुनि नथमल जी), पृ. १३६ ५१. (क) 'एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतो विरतिर्महाव्रतम् ।' -तत्त्वार्थ.७/२ भाष्य (ख) तत्त्वार्थ. ७/१ भाष्य सिद्धसेनीया टीका (ग) 'अकरणं निवृत्तिरुपरमो विरतिरित्यनर्थान्तरम् ।' -तत्त्वार्थ. ७/२ (घ) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ७२-७३ ५२. . (क) महच्च तव्रतं महाव्रतं, महत्त्वं चास्य श्रावकसम्बन्ध्यणुव्रतोपेक्षयेति । —हारि. वृत्ति, पत्र १४४ (ख) 'सकले महति वते महव्वते । । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ८० (ग) जम्हा य भगवतो साधवो तिविहं तिविहेण पच्चक्खायंति, तम्हा तेसिं महव्वयाणि भवंति, सावयाणं पुण तिविहं दुविहं पच्चक्खायमाणाणं देसविरईए खुड्डुलगाणि वयाणि भवंति । —जिनदास चूर्णि, पृ. १४६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy