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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका काया से कृत-कारित-अनुमोदनरूप प्राणातिपात, मृषावाद आदि का आचरण नही करूंगा, मैं पूर्वोक्त सभी प्रकार के प्राणातिपात, मृषावाद आदि का प्रत्याख्यान करता हूं। त्रिकरण-त्रियोग का स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है। अर्थात् -साध्वी या साधु महाव्रतों की प्रतिज्ञा के समय कहता है श्रमणोपासक की तरह प्रत्येक व्रत में कुछ छूट रखकर मैं स्थूलरूप से प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान नहीं करता, अपितु सर्व प्रकार के प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करता हूं। सर्व का अर्थ है—निरवशेष। महाव्रतों में किसी भी प्रकार की छूट या रियायत नहीं रहती। विरमण का अर्थ है—सम्यग्ज्ञान और सम्यक्श्रद्धापूर्वक प्राणातिपात आदि पापों से सर्वथा निवर्तन—निवृत्ति करना।२ प्रत्येक महाव्रत के साथ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से हिंसादि पापों से विरत होने का विधान भी 'सर्वविरमण' के अन्तर्गत आता है। प्रत्याख्यान : प्रतिज्ञा का प्राण- प्रत्येक महाव्रत की प्रतिज्ञा के प्रारम्भ में 'पच्चक्खामि' शब्द आता है। 'प्रत्याख्यान' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार होता है—प्रत्याख्यान में तीन शब्द हैं—प्रति+आ+ख्यान । प्रति शब्द (उपसर्ग) प्रतिषेध-निषेध अर्थ में, आ—अभिमुख अर्थ में और 'ख्या' धातु कथन अर्थ में है। इन तीनों शब्दों का मिलकर प्रत्याख्यान का अर्थ हुआ—प्रतिषेध (प्रतीप)—अभिमुख कथन करना, प्रत्येक महाव्रत के पाठ में जब 'प्रत्याख्यामि' शब्द आता है तो उसका अर्थ हो जाता है—प्रत्याख्यान करता हूं। जैसे—मैं अहिंसामहाव्रत के प्रतीप (हिंसा) प्राणातिपात के प्रतिषेध के अभिमुख कथन करता हूं। अर्थात् —मैं प्राणातिपात न करने के लिए वचनबद्ध या प्रतिज्ञाबद्ध हो रहा हूं। अथवा 'पच्चक्खामि' शब्द का संस्कृतरूप प्रत्याचक्षे' होता है तब इसका स्पष्टार्थ होता है-"मैं संवृतात्मा सम्प्रति (इस समय) भविष्य में हिंसादि पाप के प्रतिषेध के लिए आदरपूर्वक (श्रद्धाभक्तिपूर्वक) अभिधान (कथन) करता हूं।" निष्कर्ष यह है कि प्रत्याख्यान महाव्रतों की प्रतिज्ञा का प्राण है, जिसके द्वारा संवृतात्मा साधक गुरु के समक्ष वर्तमान में उपस्थित होकर भविष्य में किसी प्रकार का पाप न करने के लिए प्रत्याख्यान करता है, वचनबद्ध होता है। यहीं से उसके महाव्रतारोपण का श्रीगणेश होता है। उसी प्रत्याख्यान (वचनबद्धता) को साधु या साध्वी द्वारा गुरु या गुरुणी के समक्ष 'पडिक्कमामि, निंदामि, गरहामि, अप्पाणं वोसिरामि' के रूप में विस्ततरूप से दोहराया जाता है। इसकी व्याख्या पहले की जा चकी है।४ भंते : तीन रूप एवं उद्देश्य- वृत्तिकार के अनुसार इस शब्द के तीन रूप होते हैं—भदन्त, भवान्त और भयान्त। भदन्त का अर्थ है जिसके अन्तस् (हृदय) में शिष्य का एकमात्र कल्याण निहित है। भवान्त का अर्थ भव-संसार को अन्त कराने वाला तथा भयान्त का भावार्थ है—जन्म-मरणादि दुःखों के भय का अन्त कराने वाला। 'भंते' शब्द शास्त्रों में यत्र-तत्र गुरु या भगवान् को आमंत्रित (सम्बोधित) करने के लिए प्रयुक्त होता है। ५३. (क) सर्वमिति निरवशेष, न तु परिस्थूरमेव । -हारि. वृत्ति, पत्र १४४ (ख) विरमणं नाम सम्यग्ज्ञान-श्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्त्तनम् । -हारि. वृत्ति, पत्र १४४ (ग) दशवैकालिक (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. ७३ ५४. (क) प्रत्याख्यामीति-प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, आङभिमुख्ये, ख्या-प्रकथने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं (प्राणातिपातस्य) करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा प्रत्याचक्षे-संवृतात्मा साम्प्रतमनागतप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः । —हारि. वृत्ति, पत्र १४४-१४५ .. (ख) 'संपइकालं संवरियप्पणो अणागते अकरणनिमित्तं पच्चक्खाणं ।' जिनदास चूर्णि, पृ. १४६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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