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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका (गुरुसाक्षी) से गर्हा करता हूं और (मैथुनसेवनयुक्त सावद्य) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। भंते! मैं चतुर्थ महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत) हुआ हूं, (जिसमें ) सब प्रकार के मैथुन - सेवन से विरत होना होता है ॥ १४ ॥ ९७ [४६] इसके (चतुर्थ महाव्रत के) पश्चात् पंचम महाव्रत में परिग्रह से विरत होना होता है। भंते! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं। जैसे कि गांव में, नगर में या अरण्य में (कहीं भी), अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त ( किसी भी ) परिग्रह का परिग्रहण स्वयं न करे, दूसरों से परिग्रह का परिग्रहण नहीं कराए, और न ही परिग्रहण करने वाले अन्य किन्हीं का अनुमोदन करे, (इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं ) यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से (करता हूं।) (अर्थात् ) मैं मन से, वचन से, काया से (परिग्रह - ग्रहण) नहीं करूंगा, न (दूसरों से परिग्रह-ग्रहण) कराऊंगा और न ( परिग्रह - ग्रहण) करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन करूंगा। भंते! मैं इससे (अतीत के परिग्रह) से निवृत्त होता हूं, उसकी ( आत्मसाक्षी से) निन्दा करता हूं, (गुरुसाक्षी) से करता हूं और (परिग्रह- युक्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। भंते! मैं पंचम महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत) हुआ हूं, (जिसमें ) सब प्रकार के परिग्रह से विरत होना होता है ॥ १५ ॥ [४७] भंते! इसके (पंचम महाव्रत के) अनन्तर छठे व्रत में रात्रिभोजन से निवृत्त होना होता है । भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता हूं। जैसे कि—अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (किसी भी वस्तु) का रात्रि में स्वयं उपभोग न करे, दूसरों को रात्रि में उपभोग न कराए और न रात्रि में उपभोग करने वाले अन्य किन्हीं का अनुमोदन करे, (इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं ) यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से (करता हूं।) (अर्थात्) मैं मन से, वचन से, काया से, स्वयं ( रात्रिभोजन) नहीं करूंगा, न ( दूसरों से रात्रिभोजन) कराऊंगा और न ( रात्रिभोजन करने वाले अन्य किसी का) अनुमोदन करूंगा। भंते! मैं इससे (अतीत के रात्रिभोजन से ) निवृत्त होता हूं, ( आत्मसाक्षी से उसकी ) निन्दा करता हूं, (गुरुसाक्षी से) गर्हा करता हूं और (रात्रिभोजनयुक्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । भंते! मैं छठे व्रत (-पालन) के लिए उपस्थित (उद्यत हुआ हूं, (जिसमें) सब प्रकार के रात्रि भोजन से विरत होना होता है ॥ १६ ॥ [४८] इस प्रकार मैं इन (अहिंसादि) पांच महाव्रतों और रात्रिभोजन-विरमण रूप छठे व्रत को आत्महित के लिए अंगीकार करके विचरण करता हूं ॥ १७ ॥ विवेचन - सामान्य दण्डसमारम्भ-त्याग के बाद विशेष दण्डसमारम्भ-त्याग — इसके पूर्व के अनुच्छेद में शिष्य द्वारा सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक सामान्य दण्ड- समारम्भ प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा का उल्लेख है और उसके बाद प्रस्तुत ७ सूत्रों (४२ से ४८ तक) में विशेष रूप से दण्डसमारम्भ का प्रत्याख्यान । इन विशिष्ट दण्ड- समारम्भों से दूसरे जीवों को परिताप होता है। अतः इन ७ सूत्रों में अहिंसादि पांच महाव्रतों और छठे रात्रि - भोजनत्याग रूप व्रत की शिष्य द्वारा की जाने वाली प्रतिज्ञा का निरूपण है । ४९ ४९. अयं च आत्मप्रतिपत्त्यर्हो दण्डनिक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषत: पंचमहाव्रतरूपतयाऽप्यंगीकर्त्तव्य इति महाव्रतान्याह । हारि. वृत्ति, पत्र १४४
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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