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________________ ८४ दशवैकालिकसूत्र पंच स्थावरों का उपयोग और अहिंसामहाव्रत की सुरक्षा— यहां एक ज्वलन्त प्रश्न उपस्थित होता है कि जब पृथ्वी आदि पांचों जीवनिकाय, जीवों के पिण्डरूप हैं, तब अहिंसामहाव्रती साधु-साध्वी पृथ्वी पर गमनागमन, शयन, उच्चार-प्रस्रवण, आदि क्रियाओं में पृथ्वी की हिंसा होने से ये क्रियाएं कैसे कर सकेंगे? जीवों के पिण्डरूप जल का उपयोग कैसे कर सकेंगे? अग्नि-संयोग से निष्पन्न उष्ण आहार-पानी का उपयोग कैसे कर सकेंगे? अंगसंचालन, श्वासोच्छ्वास आदि क्रियाओं में वायु का सेवन कैसे कर सकेंगे? और शाकभाजी, पक्के फल, घास आदि के रूप में वनस्पति का उपयोग भी कैसे कर सकेंगे? और इनका उपयोग किये बिना उनका जीवन कैसे टिक सकेगा तथा संयम का पालन कैसे हो सकेगा? इन्हीं ज्वलन्त प्रश्नों को अन्यतीर्थिक लोग आक्षेपरूप में प्रस्तुत करते हैं—"जल में जन्तु है, स्थल में जन्तु है, पर्वत के शिखर पर जन्तु है, यह सारा लोक जन्तुसमूह से व्याप्त है, ऐसी स्थिति में भिक्षु कैसे अहिंसक रह सकेगा ?"३१ इन्हीं प्रश्नों का समाधान करने के लिए शास्त्रकार ने प्रत्येक स्थावर जीवनिकाय का परिचय देने के साथसाथ एक पंक्ति अंकित कर दी है—'अन्नत्थ सत्थपरिणएण'। इनका शाब्दिक अनुवाद होगा शस्त्रपरिणत (पृथ्वी आदि) को छोड़ कर—वर्जन कर, या शस्त्रपरिणत के सिवाय, किन्तु इसका भावानुवाद होगा शस्त्रपरिणत होने से पूर्व। तात्पर्य यह है कि जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति शस्त्रपरिणत शस्त्र के द्वारा खण्डितविदारित—जीवच्युत हो जाएगी, उसके अचित्त (जीवरहित-प्रासुक) हो जाने से, उनके उपयोग में साधु-साध्वी को हिंसा नहीं लगेगी, और संयम का सम्यक् प्रकार से पालन करते हुए जीवननिर्वाह भी हो जाएगा।३२ 'शस्त्र-परिणत' की व्याख्या- जिंससे प्राणियों का घात हो, उसे शस्त्र कहते हैं। वह शस्त्र दो प्रकार का है—द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के प्रति मन के दुष्ट परिणाम करना भावशस्त्र है। द्रव्यशस्त्र तीन प्रकार के हैं—'स्वकायशस्त्र, परकायशस्त्र और उभयकायशस्त्र।' इन तीनों में से किसी भी द्रव्यशस्त्र से पथ्वी आदि परिणत हो जाए तो वह अचित्त हो जाती है। शस्त्र-परिणत पृथ्वीकाय— अपने से भिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाली पृथ्वी (मिट्टी आदि) ही पृथ्वीकाय के जीवों के लिए स्वकायशस्त्र है। जल, अग्नि, पवन, सूर्यताप, पैरों से रोंदना आदि पृथ्वीकायिक जीवों के लिए परकायशस्त्र हैं। इन परकायशस्त्रों से मिट्टी के जीवों का घात हो जाने से वे अचित्त हो जाते हैं। स्वकाय (मिट्टी) और परकाय (जल आदि) दोनों संयुक्तरूप से घातक हों तो उन्हें उभयकायशस्त्र कहा जाता है। जैसे—काली मिट्टी. जल ३१. (क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २०८ से २१३ तक (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ६३ (ग) जले जन्तुः स्थले जन्तुः, जन्तुः पर्वतमस्तके । जन्तुमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ॥ -प्रमेयकमलमार्तण्ड में उद्धत ३२. (क) अण्णत्थसद्दो परिवज्जणे वट्टति । -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७४ (ख) अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः-शस्त्रपरिणतां पृथिवीं विहाय-परित्यज्य अन्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः । —हारि. वृत्ति, पत्र १३८-१३९ (ग) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ६३ (घ) दशवैकालिक आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. २०९, २१२
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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