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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
में मिलने पर जल और सफेद मिट्टी दोनों के लिए शस्त्र हो जाती है। इस प्रकार शस्त्रपरिणत पृथ्वी जीवरहित होने से अचित्त होती है। उस पर आहार विहारादि क्रियाएं करने से साधु-साध्वियों के अहिंसा महाव्रत की क्षति नहीं होती।३
शस्त्रपरिणत अप्काय- इसी प्रकार तालाब आदि के जल के लिए कुए आदि का जल स्वकायशस्त्र है परन्तु ऐसा जल शस्त्रपरिणत होने पर भी व्यवहार से अशुद्ध होने के कारण ग्राह्य नहीं है। जल, द्राक्षा, लवंग, आटा, चूना आदि वस्तुएं परकायशस्त्र हैं। एक स्थान (कुए) के जल के साथ तालाब आदि (अन्य स्थान) का जल और अग्नि, चावल, आटा, चूना, मिट्टी आदि मिलने पर उभयकाय शस्त्र हैं। जल का वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श बदल जाना उसका शस्त्रपरिणत हो जाना है। इस प्रकार का शस्त्रपरिणत जल या अग्निशस्त्र परिणत उष्ण जल अचित्त अथवा प्रासुक हो जाता है, जो अहिंसक साधुवर्ग के लिए ग्राह्य है।
शस्त्रपरिणत तेजस्काय- तेजस्काय के शस्त्र ये हैं कंडे की अग्नि के लिए तृण की अग्नि स्वकायशस्त्र है, परन्तु ऐसी स्वकायशस्त्रपरिणत अग्नि व्यवहार से अशुद्ध होने के कारण तथा भगवदाज्ञा न होने से साधुवर्ग के लिए ग्राह्य नहीं है। जल, मिट्टी आदि अग्नि के लिए परकायशस्त्र हैं। उष्णजल आदि उभयकायशस्त्र हैं। गर्म खिचड़ी, भात आदि उष्ण आहार, साग, दाल, चावलों का मांड आदि उष्ण पान, आग में तपी हुई ईंट, बाल आदि शस्त्रपरिणत अचित्त अग्निकाययुक्त हैं। ये सब अग्नि के संयोग से निष्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें अचित्त अग्निकाय शब्द की प्रवृत्ति होती है। साधुओं के लिए ऐसे शस्त्रपरिणत अचित्त अग्निकाय से युक्त आहारादि ग्राह्य होते हैं।
शस्त्रपरिणत वायुकाय— पूर्व आदि दिशा के वायु के लिए, पश्चिम आदि दिशा का वायु-स्पर्श स्वकायशस्त्र है, अग्नि आदि परकायशस्त्र है और उभयकायशस्त्र अग्नि, सूर्यताप आदि से तपा हुआ वायु है।
___ शस्त्रपरिणत वनस्पतिकाय— अमुक वनस्पति के लिए लकड़ी, सूखी घास आदि स्वकायशस्त्र हैं, लोह, पत्थर, अग्नि, सूर्यताप, उष्ण या शस्त्रपरिणत जल आदि वनस्पति के लिए परकायशस्त्र हैं। फरसा (कुल्हाड़ी), दात्र (दरांती) आदि उभयकायशस्त्र हैं। जो शस्त्रपरिणत वनस्पति है, वह एषणीय और कल्पनीय हो तो दाता के द्वारा दिये जाने पर साधु-साध्वी के लिए ग्राह्य है।
निष्कर्ष यह है कि पृथ्वीकाय आदि पांचों स्थावर जीवनिकायों के शस्त्रपरिणत हो जाने पर जीवच्युत हो जाने से पृथ्वी आदि पांचों का उपयोग समिति, एषणा और यतना से शुद्ध होने पर पूर्वोक्त (अमुक) मर्यादा में साधुसाध्वी के द्वारा किया जा सकता है। इससे उनके अहिंसाव्रत और संयम में कोई आंच नहीं आती।
त्रसजीव : स्वरूप, प्रकार और व्याख्या- प्रस्तुत में त्रसजीवों के लिए तीन विशेषण प्रयुक्त किए गए हैं—अणेगे, बहवे, पाणा। इनका आशय यह है—त्रसजीवों के द्वीन्द्रिय आदि अनेक भेद हैं और उन द्वीन्द्रिय आदि प्रत्येक कोटि के त्रसजीव के जाति, कुलकोटि, योनि इत्यादि की अपेक्षा से लाखों भेद हैं। इसलिए उन
३३. (क) दशवैकालिक नियुक्ति गाथा २३१, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र १३९, जिनदास चूर्णि, पृ. १३७
(ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ६३, दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. १२४
(ग) दशवैकालिक आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. २०८ ३४. (क) दशवैकालिक आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. २०९ से २१८ तक
(ख) वायुकाय की शस्त्रपरिणति के लिए देखिये-भगवती सूत्र शतक २, उ. १, वायु-अधिकार