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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका
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वनस्पतिकाय के विभिन्न रूप- प्रस्तुत में वनस्पतिकाय के विभिन्न रूप बतलाए हैं, उनका विश्लेषण इस प्रकार है-वनस्पति के ये पृथक्-पृथक् रूप उत्पत्ति की भिन्नता के आधार पर बताए गए हैं। उनके उत्पादक भाग या उत्पत्ति के मूल को 'बीज' संज्ञा दी गई है। ये भिन्न-भिन्न होते हैं, इसलिए इनके अलग-अलग नाम रखे गए हैं। जैसे—अग्रबीज—जिनके बीज अग्रभाव में होते हैं, वे कोरंटक आदि अग्रबीज कहलाते हैं। मूलबीजजिनका मूल ही बीज हो, वे कमलकन्द आदि मूलबीज कहलाते हैं। पर्वबीज—पोर (गांठ) या पर्व ही उनका बीज हो वे पर्वबीज कहलाते हैं, जैसे ईख आदि। स्कन्धबीज स्कन्ध (थुड़) ही जिनका बीज हो, वे स्कन्धबीज कहलाते हैं। जैसे बड़, पीपल, थूहर, कपित्थ (कैथ) आदि। बीजरुह- बीज से उगने वाली वनस्पति या जिसके बीज में ही बीज रहे वह वनस्पति बीजरुह कहलाती है। जैसे–चावल, गेहूं आदि।२८
सम्मूछिम- जो प्रसिद्ध बीज के बिना, केवल पृथ्वी, वर्षा (वृष्टिजल) आदि कारणों से दग्धभूमि में भी उत्पन्न हो जाती है, ऐसी पद्मिनी, तृण आदि को सम्मूछिमवनस्पति कहते हैं। तृण-घासमात्र को तृण कहते हैं। तृण शब्द के द्वारा दूब, काश, नागरमोथा, कुश, दर्भ, उशीर आदि सभी प्रकार के तृणों का ग्रहण किया गया है। लता-पृथ्वी पर या किसी बड़े पेड़ पर लिपट कर उसके सहारे से ऊपर फैल जाने वाली वनस्पति को लता कहते हैं, इसे बेल, वल्लरी आदि भी कहते हैं। लता शब्द के द्वारा चंपा, जाई, जूही, वासन्ती आदि सभी प्रकार की लताओं का ग्रहण किया गया है। यहां तक सभी प्रकार की वनस्पतियों का दिग्दर्शन कराया गया है।२९
वणस्सइकाइया सबीया : तात्पर्य प्रस्तुत सूत्र में दूसरी बार 'वनस्पतिकायिक' का उल्लेख किया गया है, वह ऊपर बताये गये वनस्पति भेदों के अतिरिक्त सूक्ष्म, बादर आदि तथा बीजपर्यन्त वनस्पति के दस प्रकारों का ग्रहण करने के लिए किया गया है, इसीलिए 'वणस्स्इकाइया' के साथ 'सबीया' विशेषण दिया गया है। यही कारण है कि 'सबीया' का अर्थ 'बीजयुक्त वनस्पति' न करके (मूल से लेकर) बीजपर्यन्त किया है। अर्थात्सबीज शब्द से यहां मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज, वनस्पति के इन दसों भेदों का ग्रहण हो जाता है।
२७. (ख) 'अंगुलासंख्येयभागमात्रावगाहनया पारमार्थिकयाऽनेकजीवसमाश्रितेति भावः ।' (ग) पुढो सत्ता नाम पुढविकम्मोदएण सिलेसेण वट्टिया वट्टी पिहप्पिहं चऽवत्थियत्ति वुत्तं भवइ ।
जिनदास चूर्णि, पृ. १३६ २८. (क) अग्रं बीजं येषां ते अग्रबीजा:-कोरण्टकादयः । मूलं बीजं येषां ते मूलबीजा-उत्पलकन्दादयः । पर्व बीजं येषां
ते पर्वबीजा-इक्ष्वादयः । स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धबीजाः-शल्लक्यादयः । बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाशाल्यादयः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १३८-१३९ २९. (क) सम्मूर्च्छन्तीति सम्मूर्छिमाः–प्रसिद्धबीजाभावेन पृथिवी-वर्षादि-समुद्भवास्तृणादयः । न चैते न सम्भवन्ति, दग्धभूमावपि सम्भवात् ।
—हारि. वृत्ति, पृ. १४० (ख) पउमिणिमादी उदगपुढवि-सिणेह-संमुच्छणा संमच्छिमा ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७५ (गतत्थ तणग्गहणेण तणभेया गहिया । लतागहणेण लताभेदा गहिया । -जिनदास चूर्णि, पृ. १३८ ३०. (क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २२० (ख) सबीयग्हणेण एतस्स चेव वणस्सइकाइयस्स बीयपज्जवसाणा दस भेदा गहिया भवंति, तं जहा
मूले कंदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य । पत्ते पुप्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा ॥ -जिनदास चूर्णि, पृ. १३८