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दशवकालिकसूत्र
वाणव्यन्तर देव, भवनवासी देव, ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव (कल्पोपपन्न, कल्पातीत, ग्रैवेयक और अनुत्तरौपपातिक देव) के चैतन्य का विकास उत्तरोत्तर अधिक होता है।२३
___ अक्खाया : तात्पर्य— यहां 'अक्खाया' शब्द प्रयोग करने का तात्पर्य यह है कि पृथ्वीकाय आदि चैतन्यवान् (सजीव) हैं, यह मैं (सुधर्मास्वामी) नहीं कह रहा हूं, सर्वज्ञ-सर्वदशी भगवान् ने कहा है।
__ अणेगजीवा पुढोसत्ता : व्याख्या अनेकजीवा का अर्थ है—पृथ्वीकायादि प्रत्येक काय के अनेकअनेक जीव हैं, एक जीव नहीं हैं। जैसे वैदिक मतानुसार वेदों के पृथिवी देवता, आपोदेवता, इत्यादि सूक्तों को प्रमाण मान कर पृथ्वी आदि को एक-एक माना गया है, इस प्रकार जैनदर्शन नहीं मानता। इसीलिए यहां पृथ्वी आदि प्रत्येक स्थावर को अनेकजीव कहा गया है। अर्थात् —उनमें जीव या आत्मा एक नहीं, किन्तु संख्या की दृष्टि से असंख्यात और अनन्त हैं। शास्त्रीय दृष्टि से वनस्पति के सिवाय शेष पांच जीवनिकायों में से प्रत्येक में असंख्यात जीव हैं, वनस्पतिकाय में अनन्त जीव हैं। यहां 'असंख्य' और 'अनन्त' दोनों के लिए 'अनेक' शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थात्-मिट्टी के कण, जलबिन्दु, अग्नि की चिनगारी और वायु में और प्रत्येक वनस्पति में असंख्यजीव तथा साधारण वनस्पति में अनन्त जीव पिण्डित या समुदित होते हैं। इन सबका एक शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता, इनके शरीरों का पिण्ड ही हमें चक्षुगोचर होता है।२६ ।
___ कई वेदान्त-दार्शनिक सब में एक ही आत्मा मानते हैं। उनका अभिमत है—जैसे–चन्द्रमा एक होने पर भी विभिन्न जल-पात्रों में भिन्न-भिन्न दिखाई देता है, इसी तरह एक ही भूतात्मा (जीव) प्रत्येक भूत में पृथक्-पृथक् दिखाई देता है। शास्त्रकार ने इस मत का निराकरण करते हुए कहा है—'पुढोसत्ता'—पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक में अनेक जीव हैं और वे एकात्मा नहीं, किन्तु उनकी पृथक्-पृथक् सत्ता है—स्वतंत्र अस्तित्व है। अथवा वे पृथक्भूत सत्त्व (आत्माएं) हैं। इनके पृथक्भूत सत्त्व होने का प्रमाण जिनदास महत्तर ने प्रस्तुत किया है कि यदि उन्हें शिला आदि पर पीसा जाए तो कुछ पिसते हैं, कुछ नहीं पिसते। इस दृष्टि से उनका पृथक् सत्त्व (अस्तित्व या आत्मत्व) सिद्ध होता है। शास्त्रों में बताया गया है कि इन (स्थावर जीवों) की अवगाहना इतनी सूक्ष्म होती है कि अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र को अवगाहन करके अनेक जीव समा जाते हैं।
२३: (क) प्रबलमोहोदयात् सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणाम् ।
—हारि. वृत्ति, पत्र १३८ (ख) सव्वजहणं चित्तं एगिंदियाणं ततो विसुद्धतरं बेइंदियाणं...जाव सव्वुक्कसं अणुत्तरोववातियाणं देवाणं ।
-अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७४ २४. दशवैकालिक आचारमणिमंजूषा टीका, भाग १, पृ. २०५ २५. इयं च अनेकजीवा' अनेके जीवा यस्यां साऽनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा वैदिकानां पृथिवी देवता, आपो देवतेत्येवमादिवचन-प्रामाण्यादिति।
-हारि. वृत्ति, पत्र १३८ २६. (क) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भाग १, पृ. २०७ (ख) 'असंखेज्जाणं पुण पुढविजीवाणं सरीराणि संहिताणि (समुदिताणि) चक्खुविसयमागच्छंति ।'
-जिनदास चूर्णि, पृ. १३६ २७. (क) अनेकजीवाऽपि कैश्चिदेकभूतात्माऽपेक्षयेष्यत एव, यथाहुरेक—'एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः ।'
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ 'अत आह-पृथक्सत्त्वा।' पृथक्भूताः सत्त्वा-आत्मानो यस्यां सा पृथक्सत्त्वा ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १३८