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________________ दशवैकालिकसूत्र महावीर कहलाए। कहा भी है—' जो कर्मों को विदीर्ण करता है, तपश्चर्या से सुशोभित है, तपोवीर्य से युक्त होता है, इस कारण वह 'वीर' कहलाता है। इन गुणों को अर्जित करने में वे महान् वीर थे, इसलिए महावीर कहलाए। 'पवेइया, सुयक्खाया, सुपन्नत्ता' : तीनों विशेषणों का विशेषार्थ प्रवेदित: तीन अर्थ (१) सम्यक् प्रकार से विज्ञात किया जाना हुआ, (२) केवलज्ञान के आलोक में स्वयं भलीभांति वेदित—जाना हुआ, (३) विविध रूप से अनेक प्रकार से कथित । ७८ सुआख्यात— (१) सम्यक् प्रकार से कहा, (२) देव, मनुष्य और असुरों की परिषद् में सम्यक् प्रकार से (षड्जीवनिका अध्ययन ) कहा । सुप्रज्ञप्त : ': दो अर्थ (१) जिस प्रकार प्ररूपित किया गया, उसी प्रकार आचरित भी किया गया है, अतएव सुप्रज्ञप्त है। जो उपदिष्ट तो हो पर आचरित न हो, वह सुप्रज्ञप्त नहीं कहलाता। (२) सम्यक् प्रकार से प्रज्ञप्त, अर्थात् जिस प्रकार कहा गया, इसी प्रकार सुष्ठु सूक्ष्म दोषों के परिहारपूर्वक प्रकर्षरूप से सम्यक् · आसेवित किया गया। यहां ज्ञप् धातु आसेवन अर्थ में प्रयुक्त है । षड्जीवनिका के इन तीनों विशेषणों का संयुक्त अर्थ हुआ — श्रमण भगवान् महावीर ने षड्जीवनिका को सम्यक् प्रकार से जाना, उसका उपदेश किया और जैसा उपदेश किया, वैसा स्वयं आचरण भी किया। धम्मपन्नत्ती : धर्मप्रज्ञप्ति : अर्थ - जिससे श्रुत - चारित्ररूप धर्म अथवा सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयरूप धर्म जाना जाए अथवा जिसमें धर्म का प्रज्ञपन किया गया हो, वह धर्मप्रज्ञप्ति अध्ययन है।" अहिजिउं— अध्ययन करना — पढ़ना, पाठ करना, सुनना और चिन्तन करना — स्मरण करना ।१० 'मे' शब्द का आशय प्रस्तुत में 'मे' शब्द अपनी आत्मा के लिए, स्वयं के लिए प्रयुक्त हुआ है। इस अर्थ के अनुसार इस वाक्य का अनुवाद होगा—' इस धर्मप्रज्ञप्ति - अध्ययन का पठन मेरे — आत्मा के लिए श्रेयस्कर है । १११ ७. ८. पृथ्वीकायिक से त्रसकायिक तक : लक्षण, अर्थ प्रकार तथा सचेतनतासिद्धि (१) पृथ्वीकायिक (क) भीमं भय-भेरवं उराले अचेलयं परीसहं सहइ त्ति कट्टु देवेहिं से नाम कयं समणे भगवं महावीरे । - आचा. चूर्णि, पृ. १५-१६ — हारि. वृत्ति, पत्र १३७ (ख) कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः । (ग) विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते, तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद् वीर इति स्मृतः । —हारि. टीका, पृ. १६७ (क) स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षेण वेदिता - विज्ञातेत्यर्थः । (ख) प्रवेदिता नाम विविहमनेकप्रकारं कथितेत्युक्तं भवति । (ग) सोभणेण पगारेण अक्खाता सुठु वा अक्खाया। (घ) सदेवमनुष्यासुराणां पर्षदि सुष्ठु आख्याता स्वाख्याता । (ङ) जहेव परूविया तहेव आइण्णावि । - हारि. वृत्ति, पत्र १३७ — जिनं चूर्णि, पृ. १३२ — जिन. चूर्णि, पृ. १३२ —हारि वृत्ति, पत्र १३७ — जिनदास चूर्णि, पृ. १३२ — अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७३ धम्मे पण्णविज्जए जाए सा धम्मपण्णत्ती अज्झयणविसेसो । — हारि वृत्ति, पत्र १३८ — जिन. चूर्णि, पृ. १३२ - हारि. वृत्ति, पत्र १३८ ९. १०. अध्येतुमिति पठितुं श्रोतुं भावयितुम् । ११. (क) मे इति अत्तणो निद्देसे । (ख) ममेत्यात्मनिर्देशः ।
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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