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चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका काठिन्य आदि लक्षणों से जानी जाने वाली पृथ्वी ही जिनका शरीर (काय) होता है, वे पृथ्वीकाय या पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। मिट्टी, मुरड़, खड़ी, गेरू, हींगलू, हिरमच, लवण, पत्थर, बालू, सोना, चांदी, अभ्रक, रत्न, हीरा, पन्ना आदि पृथ्वीकायिक जीवों के प्रकार हैं। केवलज्ञानरूपी आलोक से लोक-अलोक को प्रत्यक्ष जानने वाले भगवान् ने पृथ्वी को सचेतन (सजीव) कहा है। पृथ्वी की सचेतनता सिद्धि के लिए आगमप्रमाण के अतिरिक्त अनुमानप्रमाण भी हैं-(१) पृथ्वी सचेतन है, क्योंकि खोदी हुई खान आदि की मिट्टी सजातीय अवयवों से स्वयमेव भर जाती है। जो सजातीय अवयवों से भर जाता है, वह सचेतन होता है। जैसे–चेतनायुक्त मानवशरीर। जीवित मानवशरीर में घाव हो जाता है, तब वह उसी तरह के अवयवों से स्वयं भर जाता है, उसी प्रकार खोदी हुई खान आदि की पृथ्वी उसी प्रकार के अवयवों से भर जाती है और पूर्ववत् हो जाती है। इसलिए पृथ्वी सचेतन (सजीव) है।
(२) पृथ्वी सचित्त है, क्योंकि उसमें प्रतिदिन घर्षण और उपचय दृष्टिगोचर होता है, जैसे—पैर का तलुआ। पैर का तलुआ घिस जाने के बाद पुनः भर जाता है, वैसे ही पृथ्वी भी घिस जाने के बाद फिर भर जाती है, इसलिए वह सजीव है।
(३) विद्रुम (गा) पाषाण आदि-रूप पृथ्वी सजीव (सचित्त) है क्योंकि कठिन होने पर भी उसमें वृद्धि देखी जाती है, जैसे—जीवित प्राणी के शरीर की हड्डी। अर्थात् —जीवित प्राणी के शरीर की हड्डी आदि कठोर होने पर भी बढ़ती है, इसलिए सचेतन है, उसी प्रकार विद्रुम, शिला आदि रूप पृथ्वी में काठिन्य होने पर भी वृद्धि आदि गुण प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इससे सिद्ध है कि पृथ्वी सचित्त (सजीव) है।१२
___ अप्कायिकजीव- जल ही जिनका काय अर्थात् शरीर है, उन्हें अप्काय या अप्कायिक कहते हैं। शुद्धोदक, ओस, हरतनु, महिका (बूंवर), ठार, हिम, ओला आदि सब अप्काय (सचित्त जल) के प्रकार हैं। पार्थिव
और आकाशीय दोनों प्रकार के जलों को केवलज्ञानी वीतराग प्रभु ने सचित्त कहा है। आगम प्रमाण के अतिरिक्त अनुमान प्रमाण से भी जल की सचेतनता सिद्ध होती है—(१) भूमिगत जल सचेतन है, क्योंकि खोदी हुई भूमि में सजातीय स्वभाव वाला जल उत्पन्न होता है, जैसे—मेंढक । भूमि को खोदने से जैसे मेंढक निकलता है, जो सचेतन होता है, उसी प्रकार पानी भी निकलता है, अतएव वह भी सचेतन है। आकाशीय जल भी सचित्त है, क्योंकि मेघादि विकार होने पर जल स्वयं ही गिरने लगता है, जैसे—मछली आदि।३ वैज्ञानिकों ने माइक्रोस्कोप यंत्र आदि से वर्तमान युग में पानी की एक बून्द में हजारों त्रस जीव रहे हुए हैं, यह सिद्ध कर दिया है।
तेजस्कायिक जीव- अग्नि (तेज) उष्ण लक्षण वाली प्रसिद्ध है। वही जिनका काय शरीर हो, उन जीवों को तेजस्काय या तेजस्कायिक कहते हैं। उनके अनेक प्रकार हैं—अग्नि, अंगारे, मुर्मुर (चिनगारी), अर्चि, ज्वाला, उल्कापात, विद्युत आदि। तेजस्काय को भी भगवान् ने सजीव कहा है, इसलिए आगमप्रमाण से तेजस्काय १२. (क) पृथ्वी काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता, सैव कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एव पृथिवीकायिकाः ।
–हारि. वृत्ति, पत्र १३८ (ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भा. १, पृ. २०६ से २०८ १३.. (क) आपो-द्रवाः प्रतीता एव, ता एव कायः शरीरं येषां ते अप्कायाः अप्काया एव अप्कायिकाः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र १३८ (ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा टीका), भा. ९, पृ. २०९