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________________ चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका का एक आशय यह भी है कि गुणी शिष्य को आगमरहस्य देना चाहिए, अगुणी को नहीं। कहा भी है " जिस प्रकार कच्चे घड़े में भरा हुआ पानी उस घड़े को ही विनष्ट कर देता है, वैसे ही गुणरहित शिष्य (पात्र) में उंड़ेला हुआ सिद्धान्तरहस्य रूपी जल, उस अल्पाधार को ही विनष्ट कर देता है । ३ 'आयुष्मान् भगवान्' कहने का आशय - जिनदास महत्तर ने इसका आशय स्पष्ट किया है कि सुधर्मास्वामी कहते हैं—मैंने आयुसहित भगवान् से अर्थात् — तीर्थंकर भगवान् के ( जीवित रहते ) उनसे सुना है। कासवेणं समणेणं भगवया महावीरेणं : व्याख्या काश्यप : दो अर्थ (१) भगवान् महावीर का गोत्र काश्यप होने के कारण वे काश्यप के अपत्य (संतान) काश्यप कहलाए, (२) काश्य कहते हैं— इक्षुरस को, उसका पान करने वाले को 'काश्यप' कहते हैं । भगवान् ऋषभदेव इक्षुरस का पान करने के कारण काश्यप कहलाए। उनके गोत्र में उत्पन्न होने के कारण भगवान् महावीर भी काश्यप कहलाए। अथवा भगवान् ऋषभ के धर्मवंशज या विद्यावंशज होने के कारण भी चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर 'काश्यप' कहलाए । समण तीन अर्थ सहज समत्वादिगुणसम्पन्न होने से वे समन (समण) कहलाए, तपस्या में दीर्घकाल तक पुरुषार्थ (श्रम) करने के कारण 'श्रमण' (दीर्घतपस्वी) कहलाए, तथा विषय कषायों का शमन करने के कारण शमन कहलाए । भगवान् : व्याख्या— 'भग' शब्द ६ अर्थों में प्रयुक्त होता है– (१) समग्र ऐश्वर्य, (२) रूप, (३) यश, (४) श्री, (५) धर्म और (६) प्रयत्न । जिसमें ऐश्वर्य आदि समग्ररूप होते हैं, वह 'भगवान्' कहलाता है। महावीर : व्याख्या भयंकर भय, भैरव तथा प्रधान अचेलकत्व आदि कठोर परीषहों को सहन करने के कारण देवों ने भगवान् का नाम 'महावीर' रखा। यश और गुणों ( को अर्जित करने) में महान् वीर होने से भगवान् को महावीर कहते हैं । कषायादि महान् आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के कारण श्री भगवान् महाविक्रान्त— ३.. ४. ७७ ५. ६. (क) अनेन...गुणाश्च देशकुलशीलादिका अन्वाख्याता भवन्ति, दीर्घायुष्कत्वं च सर्वेषां गुणानां प्रति विशिष्टतमं, कहं? जम्हा दिग्घायू सीसो तं नाणं अन्नेसिं पि भवियाणं दाहिति । तओ अवोच्छित्ती सासणस्स कया भविस्सइ, तम्हा आउसंतग्गहणं कयंति । — ज. चूर्णि, पृ. १३१ (ख) प्रधानगुणनिष्पन्नेनामंत्रणवचसा गुणवंते शिष्यायागमरहस्यं देयं, नागुणवते, इत्याह । उक्तं च ' आमे घडे निहत्तं ० ' — हारि. वृत्ति, पृ. १३७ — जिन. चूर्णि, पृ. १३२ (क) काश्यपं गोत्तं कुलं यस्य सोऽयं काश्यपगोत्तो । (ख) कासं - उच्छू, तस्य विकारो— काश्यः रसः, सो जस्स पाणं सो कासवो उसभसामी, तस्स जे गोत्तजाता ते कासवा, तेण वद्धमाणसामी कासवो । (क) सहसंमुहए समणे — अगस्त्य चूर्णि, पृ. ७३ - आचा०, चूर्णि, १५-१६ — दशवै. हारि वृत्ति, अ. १ (ख) श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः (ग) शमयति विषयकषायादीन् इति शमनः । (क) ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना ॥ (ख) भगशब्देन ऐश्वर्य-रूप-यश:- श्री - धर्म - प्रयत्ना अभिधीयन्ते, ते यस्य सन्ति स भगवान् । — जिन. चूर्णि, पृ. १३१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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