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________________ ६९ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा दुःखरूप है, जहां प्राणी क्लेश पाते हैं ।।९' उत्तराध्ययनसूत्र में ही बताया है कि 'कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुःख हैं।' इस वाक्य का तात्पर्य यह हुआ कि जितेन्द्रिय महर्षि जन्म-मरण के दुःखों, अर्थात् उनके निमित्तभूत कर्मों के क्षय के लिए पुरुषार्थ करते हैं। कर्मों का क्षय होने से समस्त दुःख स्वतः ही क्षीण हो जाते हैं। शुद्ध श्रमणाचार-पालन का फल ३०. दुक्कराई करेत्ता णं, दुस्सहाइं सहेत्तु य । केइत्थ देवलोएसु, केइ सिझंति नीरया ॥ १४॥ ३१. खवेत्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिनिव्वुडा ॥ १५॥ –त्ति बेमि ॥ ॥खुड्डियायारकहा : तइयं अज्झयणं समत्तं ॥ [३०] दुष्कर (अनाचीर्णों का त्याग एवं आतापना आदि क्रियाओं) का आचरण करके तथा दुःसह (परीषहों और उपसर्गों) को सहन कर, उन (निर्ग्रन्थों) में से कई देवलोक में जाते हैं और कई नीरज (कर्मरज से रहित) होकर सिद्ध हो जाते हैं ॥ १४॥ [३१] (देवलोक से क्रमशः) सिद्धिमार्ग को प्राप्त, (स्व-पर के) त्राता (वे निर्ग्रन्थ) संयम और तप के द्वारा पूर्व—(संचित) कर्मों का क्षय करके परिनिर्वृत्त (मुक्त) हो जाते हैं ॥ १५ ॥ -ऐसा में कहता हूं। विवेचन दुष्कर और दुःसह आचरण का परिणाम प्रस्तुत दो गाथाओं (१४-१५) में पूर्वोक्त अनाचीरें का त्याग एवं कठोर आचार का परिपालन करने वाले निर्ग्रन्थों को प्राप्त होने वाले अनन्तरागत और परम्परागत फल का निरूपण किया गया है। __दुक्कराई करेत्ता- आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार औद्देशिक आदि पूर्वोक्त अनाचीर्णों का त्याग आदि दुष्कर है, उसे करके। उत्तराध्ययनसूत्र में इसका विशद निरूपण है कि श्रमण निर्ग्रन्थ के लिए क्या-क्या दुष्कर है। दुस्सहाइं सहेत्तु– अगस्त्यचूर्णि के अनुसार ग्रीष्मऋतु में आतापना आदि श्रमणों के पूर्वोक्त आचार दुःसह हैं, उनको समभावपूर्वक सहन करके। जिनदास महत्तर के अनुसार—आतपना, अकंडूयन, आक्रोश, तर्जना, ताड़ना आदि का सहन करना दुःसह है। तात्पर्य यह है कि श्रमण जीवन में जो अनेक दुःसह परीषह और दुःसह्य उपसर्ग आते हैं, उन्हें समभावपूर्वक सहन करे। दुःसह परीषहों और उपसर्गों के प्राप्त होने पर जो साधक क्षुब्ध एवं खिन्न होकर रोते-बिलखते दीनतापूर्वक सहन करते हैं, वे कर्मक्षय नहीं कर पाते, किन्तु जो उन्हें शान्तभाव से समभावपूर्वक ५९. जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारे जत्थ कीसंति जंतवो ॥ ६०. कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई-मरणं वयंति । ६१. 'दुष्कराणि कृत्वा औद्देशिकादि—(अनाचीर्णादि) त्यागादीनि ।' -उत्तरा. अ. १९-१५ -उत्तरा. ३२/७ -हारि. वृत्ति, पत्र ११९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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